नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू ही सही...  

Posted by richa in ,


हज़ार दर्द शब-ए-आरज़ू की राह में हैं
कोई ठिकाना बताओ के काफ़िला उतरे
क़रीब और भी आओ के शौक़-ए-दीद * मिटे
शराब और पिलाओ के कुछ नशा उतरे
-- फैज़

फैज़ की इस महफ़िल में आज उनकी एक बेहद ख़ूबसूरत ग़ज़ल "नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू ही सही" ले कर आयें हैं, ये ग़ज़ल उनकी असंकलित ग़ज़लों की श्रेणी में आती है, असंकलित इसलिए कि उनके किसी भी संग्रह में नहीं पायी जाती है. सुप्रसिद्ध गायिका बेग़म आबिदा परवीन ने फैज़ की इस ग़ज़ल को अपनी आवाज़ से नवाज़ा था, "फैज़ बाय आबिदा" नाम के एक एल्बम के लिये. तो आज हम इस ग़ज़ल को पढ़ेंगे भी और सुनेंगे भी पर उससे पहले चंद बातें इस ग़ज़ल, फैज़ की लेखनी और फैज़ के बारे में.

फैज़ की लेखनी में जो टशन था, बात को कहने का जो अंदाज़ था वो इस ग़ज़ल में बड़े ही बेहतरीन तरीक़े से उभर के आया है. अपनी बात को कहने का ये अंदाज़ ही फैज़ को उनके ज़माने के अन्य शायरों से जुदा करता है और यही कारण है कि उर्दू शेर-ओ-सुख़न के इतिहास में फैज़ को एक मुख्तलिफ़ और बेहद ऊँचा मक़ाम हासिल है, जिसे पिछले तकरीबन पचास सालों में भी कोई नहीं छू पाया है.

उर्दू के एक आलोचक मुमताज़ हुसैन के कथनानुसार -

"उसकी शायरी में अगर एक परम्परा क़ैस (मजनूं) की है तो दूसरी मन्सूर ** की. "फैज़" ने इन दोनों परम्पराओं को अपनी शायरी में कुछ इस प्रकार समो लिया है कि उसकी शायरी स्वयं एक परम्परा बन गई है. वह जब भी महफ़िल में आया, एक छोटी-सी पुस्तक, एक क़तआ, ग़ज़ल के कुछ शेर, कुछ यूँ-ही सा काव्य-अभ्यास और कुछ क्षमा-याचना की बातें ले कर आया, लेकिन जब भी आया और जैसे भी आया, खूब आया..."

** एक प्रसिद्ध ईरानी वाली जिनका विश्वास था की आत्मा और परमात्मा एक ही हैं और उन्होंने 'अनल-हक़' (सोऽहं - मैं ही परमात्मा हूँ) की आवाज़ उठाई थी. उस समय के मुसलमानों को उनका यह नारा अधार्मिक लगा और उन्होंने उन्हें फांसी दे दी.


नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू * ही सही
नहीं विसाल * मयस्सर * तो आरज़ू ही सही

न तन में ख़ून फ़राहम * न अश्क़ आँखों में
नमाज़-ए-शौक़ तो वाजिब * है बे-वज़ू * ही सही

यही बहुत है के सालिम * है दिल का पैराहन *
ये चाक़-चाक़ * गरेबाँ बे-रफ़ू * ही सही

किसी तरह तो जमे बज़्म * मयक़दे वालों *
नहीं जो बादा-ओ-साग़र * तो हा-ओ-हू * ही सही

गर इन्तज़ार कठिन है तो जब तलक ऐ दिल
किसी के वादा-ए-फ़र्दा * की गुफ़्तगू * ही सही

दयार-ए-ग़ैर * में महरम * अगर नहीं कोई
तो 'फ़ैज़' ज़िक्र-ए-वतन अपने रू-ब-रू * ही सही



आइये अब इस ग़ज़ल को सुनते हैं बेग़म आबिदा परवीन जी की आवाज़ में, उम्मीद है आपको भी पसंद आएगी -  



This entry was posted on November 29, 2010 at Monday, November 29, 2010 and is filed under , . You can follow any responses to this entry through the comments feed .

11 comments

अमेरिका से एक दोस्त ने पहली बार मेल से भेजा था इसे ...ओर हमने फॉरवर्ड किया कई जगह..........

वैसे ...फैज़ पर कुछ बेहतरीन चीज़े भी ज़मा है यू ट्यूब पर .........मसलन
यहाँ देखिये..B.b.c urdu ने किस मोहब्बत से याद किया है

November 29, 2010 at 12:55 PM

ओर दूसरा पार्ट यहाँ है ....

November 29, 2010 at 1:01 PM

शुक्रिया डॉ. साब, ये लिंक्स शेयर करने के लिये... सही कहा आपने, फैज़ पर काफ़ी कुछ है यू-ट्यूब पर और इन्टरनेट पर... समय दीजिये तो सब कुछ मिलेगा :)

November 29, 2010 at 3:15 PM

अभी मैं उतना बड़ा हूँ नहीं की मैं यहाँ बताऊँ की मैंने फैज़ को कैसे जाना... लेकिन बुरे मराहिल से गुजाते हुए भी दिन बड़े सुकूनदायक थे ... वो जगह ना भूलने वाली है... वहां यूकिलिप्टस के पेड़ थे, ऊँचे ऊँचे, और थे पहाड़... आज दिन पहले से बेहतर तो हैं लेकिन दीमक लगी वो किताब नहीं है...

आपके मेहनत को सलाम.. और शाम बनाने का हमेशा की तरह शुक्रिया.

November 29, 2010 at 8:39 PM

लिल्लाह! क़यामत है यहाँ....और डॉक्टर आप ......आपका "यहाँ" भी जानलेवा है .......बहुत अपने से लगे....ऋचा...देखो ना ये जों जनाब फैज़ साब के बारे में बता रहे हैं....इनका तरीका हमारे तरीके से कितना मिलता जुलता है .......सागर की ही बात दोहराते हैं.......तुम्हारी मेहनत को सलाम....हम जिनको इतना प्यार करते हैं.......उनको खबर ही नहीं......क्या जिंदगी हैं इनलोगों की और मौत भी शाही.....लोगों का एक इंसान का प्यार नसीब नहीं होता....और इनके पास तो काफिला है :-)

November 29, 2010 at 10:35 PM

आदरणीय Richa जी
नमस्कार
अच्छा लगा "फैज" जी के बारे में जानकार पहली बार आपके ब्लॉग तक पहुंचा लेकिन दिल खुश हो गया ...आपका धन्यवाद किस तरह से करूँ ...अपना प्रयास जारी रखें ....शुभकामनायें

December 10, 2010 at 12:38 PM

tecnology trained dimaag ke saath jab shaayari pasand thoughts milte hain to combination kuch alag hi hota hai.

faiz ke baare me kuch alag batane ka shukriya. apna ye shouk banaye rakhiyega....


ASHUTOSH SINGH

December 12, 2010 at 10:04 AM

पहली बार आपके ब्लॉग पर आई फैज जी के बारे में पढ़कर अच्छा लगा...
http://veenakesur.blogspot.com/

December 12, 2010 at 4:25 PM

फैज़ की शायरी सच में मंत्रमुग्ध कर देने वाली है.एक सलीका है उनकी शायरी में जो उनकी कही बात को वजनी बना देता है..लेखनी में टशन तो है ही मानना पड़ेगा..

December 15, 2010 at 12:49 PM

मज़ा आ गया

May 27, 2011 at 2:38 AM

बहूत_कठिन_है_डगर_मंज़िल_की‬
एक राजनैतिक विचार धारा की कब्र खोदी जा रही है, दफन कौन होगा तय नहीं है?
खुदाई मे क्या निकलेगा इसपर एक कोरी परिकाल्पनिक चर्चा की जा सकती है क्या?
तथ्यों के हिसाब से जो भी सामने निकल कर आयेगा, उससे आधुनिक इतिहास/इतिहासकर निशाने पे होंगे?

और अंदेशा उस बात की भी है जो तथ्य छिपाई गयी या छुप गयी उससे देश को नुकसान हुआ या फायदा इसका आंकलन सब अपने अपने हिसाब से करेंगे।

http://shabdanagari.in/Website/Article/%E2%80%8E%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A5%82%E0%A4%A4%E0%A4%95%E0%A4%A0%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A4%B9%E0%A5%88%E0%A4%A1%E0%A4%97%E0%A4%B0%E0%A4%AE%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%BC%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A4%95%E0%A5%80%E2%80%AC

April 11, 2015 at 10:59 AM

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...