आज इक हर्फ़ को फिर ढूँढता फिरता है ख़्याल...  

Posted by richa in ,

दिल रहीन-ए-ग़म-ए-जहाँ * है आज
हर नफ़ज़ * तश्न-ए-फुगाँ * है आज
सख्त वीरान है महफ़िल-ए-हस्ती
ऐ ग़म-ए-दोस्त तू कहाँ है आज
-- फैज़ 


फैज़ की महफ़िल में एक बार फिर आप सबका तह-ए-दिल से इस्तक़बाल है. आज तक आपको फैज़ की शायरी के अनेकों रंगों से रु-बा-रु करवा चुकी हूँ पर आज रोमांसवाद और देशप्रेम से हट कर जो नज़्म चुन के लायी हूँ आप सब के लिये वो एक शायर की उस कैफ़ियत को दर्शाती है जब वो अपने ख़्यालों को कागज़ पर उतारना तो चाहताहै पर उसे वो अक्षर... वो शब्द नहीं मिलते जो उसके ख़्यालों को, उसकी भावनाओं को सही शक्ल दे पायें...

"फैज़" अपनी शायरी की तरह ही व्यक्तिगत तौर पर भी एक बेहद मीठे इन्सान थे. उन्हें कभी किसी ने ऊँचा बोलते नहीं सुना चाहे वो रोज़ मर्रा की बातचीत हो या फिर मुशायरों में पढ़े जाने वाले उनके शेर. फैज़ के बारे में कहीं पढ़ा था की वो मुशायरों में भी इस तरह अपने शेर पढ़ते हैं कि जैसे उनके होंठों से अगर ज़रा ऊँची आवाज़ निकल गई तो ना जाने कितने मोती चकनाचूर हो जायेंगे. वो सेना में कर्नल रहे, जहाँ किसी नर्मदिल अधिकारी की गुंजाइश नहीं होती. उन्होंने कॉलेज में प्रोफेसरी करी जहाँ लड़के प्रोफ़ेसर तो प्रोफ़ेसर शैतान तक को अपना स्वभाव बदलने पर मजबूर कर दें. उन्होंने रेडियो में नौकरी करी, पत्रकारिता जैसा जोखिम भरा पेशा अपनाया फिर भी उनका ये स्वभाव ज्यूँ का त्यूँ रहा और फिर जब पाकिस्तान सरकार ने इस देवता स्वरुप व्यक्ति पर हिंसात्मक विरोध का आरोप लगाकर जेल में डाल दिया तब भी मेजर मोहम्मद इसहाक़ ("फैज़" के जेल के साथी) के कथानुसार,

"कहीं पास-पड़ोस में तू-तू मैं-मैं हो, दोस्तों में तल्ख़-कलामी हो, या यूँ ही किसी ने त्योरी चढ़ा रखी हो, "फैज़" को तबियत ज़रूर ख़राब हो जाती थी और इसके साथ ही शायरी की कैफ़ियत (मूड) भी काफ़ूर हो जाती थी"

आज की ये ख़ूबसूरत सी नज़्म उनके संग्रह "शाम-ए-शहर-ए-याराँ" से ले गई है... पहले इसे पढ़ते हैं फिर सुनते हैं शशि कपूर और सुरेश वाडेकर जी की आवाज़ में, जिसे फिल्म "मुहाफ़िज़ - इन कस्टडी" में इस्तेमाल किया गया था. ये फिल्म अनीता देसाई जी के बुक्कर समान के लिये नामांकित उपन्यास "इन कस्टडी" पर आधारित है जिसके मुख्य पात्र हैं उर्दू के एक शायर "नूर". कहने की ज़रुरत नहीं की फिल्म बेहद अच्छी है और इसमें फैज़ की बहुत सी नज़्में इस्तेमाल करी गई हैं. आपने नहीं देखी तो ज़रूर देखिये एक बार. पर फिलहाल फैज़ साहब के पास लौटते हैं और पढ़ते हैं ये ख़ूबसूरत सी नज़्म.


[ 1 ]

आज इक हर्फ़ को फिर ढूँढता फिरता है ख़्याल
मध भरा हर्फ़ कोई, ज़हर भरा हर्फ़ कोई
दिलनशीं हर्फ़ कोई, क़हर भरा हर्फ़ कोई
हर्फ़-ए-उल्फ़त कोई दिलदार-ए-नज़र हो जैसे
जिस से मिलती है नज़र बोसा-ए-लब की सूरत
इतना रौशन के सर-ए-मौजा-ए-ज़र * हो जैसे
सोहबत-ए-यार में आगाज़-ए-तरब * की सूरत
हर्फ़-ए-नफ़रत कोई शमशीर-ए-ग़ज़ब * हो जैसे
ता-अबद * शहर-ए-सितम जिससे तबाह हो जाएँ
इतना तारीक़ * के शमशान की शब हो जैसे
लब पे लाऊँ तो मेरे होंठ सियह हो जाएँ

[ 2 ]

आज हर सुर से हर इक राग का नाता टूटा
ढूँढती फिरती है मुतरिब * को फिर उसकी आवाज़
जोशिश-ए-दर्द * से मजनूँ के गरेबाँ की तरह
आज हर मौज हवा से है सवाली ख़िलक़त *
ला कोई नग़मा कोई सौत * तेरी उम्र दराज़
नौहा-ए-ग़म * ही सही शोर-ए-शहादत * ही सही
सूरे-महशर * ही सही बाँग-ए-क़यामत * ही सही

जुलाई, 1977




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