आज इक हर्फ़ को फिर ढूँढता फिरता है ख़्याल...  

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दिल रहीन-ए-ग़म-ए-जहाँ * है आज
हर नफ़ज़ * तश्न-ए-फुगाँ * है आज
सख्त वीरान है महफ़िल-ए-हस्ती
ऐ ग़म-ए-दोस्त तू कहाँ है आज
-- फैज़ 


फैज़ की महफ़िल में एक बार फिर आप सबका तह-ए-दिल से इस्तक़बाल है. आज तक आपको फैज़ की शायरी के अनेकों रंगों से रु-बा-रु करवा चुकी हूँ पर आज रोमांसवाद और देशप्रेम से हट कर जो नज़्म चुन के लायी हूँ आप सब के लिये वो एक शायर की उस कैफ़ियत को दर्शाती है जब वो अपने ख़्यालों को कागज़ पर उतारना तो चाहताहै पर उसे वो अक्षर... वो शब्द नहीं मिलते जो उसके ख़्यालों को, उसकी भावनाओं को सही शक्ल दे पायें...

"फैज़" अपनी शायरी की तरह ही व्यक्तिगत तौर पर भी एक बेहद मीठे इन्सान थे. उन्हें कभी किसी ने ऊँचा बोलते नहीं सुना चाहे वो रोज़ मर्रा की बातचीत हो या फिर मुशायरों में पढ़े जाने वाले उनके शेर. फैज़ के बारे में कहीं पढ़ा था की वो मुशायरों में भी इस तरह अपने शेर पढ़ते हैं कि जैसे उनके होंठों से अगर ज़रा ऊँची आवाज़ निकल गई तो ना जाने कितने मोती चकनाचूर हो जायेंगे. वो सेना में कर्नल रहे, जहाँ किसी नर्मदिल अधिकारी की गुंजाइश नहीं होती. उन्होंने कॉलेज में प्रोफेसरी करी जहाँ लड़के प्रोफ़ेसर तो प्रोफ़ेसर शैतान तक को अपना स्वभाव बदलने पर मजबूर कर दें. उन्होंने रेडियो में नौकरी करी, पत्रकारिता जैसा जोखिम भरा पेशा अपनाया फिर भी उनका ये स्वभाव ज्यूँ का त्यूँ रहा और फिर जब पाकिस्तान सरकार ने इस देवता स्वरुप व्यक्ति पर हिंसात्मक विरोध का आरोप लगाकर जेल में डाल दिया तब भी मेजर मोहम्मद इसहाक़ ("फैज़" के जेल के साथी) के कथानुसार,

"कहीं पास-पड़ोस में तू-तू मैं-मैं हो, दोस्तों में तल्ख़-कलामी हो, या यूँ ही किसी ने त्योरी चढ़ा रखी हो, "फैज़" को तबियत ज़रूर ख़राब हो जाती थी और इसके साथ ही शायरी की कैफ़ियत (मूड) भी काफ़ूर हो जाती थी"

आज की ये ख़ूबसूरत सी नज़्म उनके संग्रह "शाम-ए-शहर-ए-याराँ" से ले गई है... पहले इसे पढ़ते हैं फिर सुनते हैं शशि कपूर और सुरेश वाडेकर जी की आवाज़ में, जिसे फिल्म "मुहाफ़िज़ - इन कस्टडी" में इस्तेमाल किया गया था. ये फिल्म अनीता देसाई जी के बुक्कर समान के लिये नामांकित उपन्यास "इन कस्टडी" पर आधारित है जिसके मुख्य पात्र हैं उर्दू के एक शायर "नूर". कहने की ज़रुरत नहीं की फिल्म बेहद अच्छी है और इसमें फैज़ की बहुत सी नज़्में इस्तेमाल करी गई हैं. आपने नहीं देखी तो ज़रूर देखिये एक बार. पर फिलहाल फैज़ साहब के पास लौटते हैं और पढ़ते हैं ये ख़ूबसूरत सी नज़्म.


[ 1 ]

आज इक हर्फ़ को फिर ढूँढता फिरता है ख़्याल
मध भरा हर्फ़ कोई, ज़हर भरा हर्फ़ कोई
दिलनशीं हर्फ़ कोई, क़हर भरा हर्फ़ कोई
हर्फ़-ए-उल्फ़त कोई दिलदार-ए-नज़र हो जैसे
जिस से मिलती है नज़र बोसा-ए-लब की सूरत
इतना रौशन के सर-ए-मौजा-ए-ज़र * हो जैसे
सोहबत-ए-यार में आगाज़-ए-तरब * की सूरत
हर्फ़-ए-नफ़रत कोई शमशीर-ए-ग़ज़ब * हो जैसे
ता-अबद * शहर-ए-सितम जिससे तबाह हो जाएँ
इतना तारीक़ * के शमशान की शब हो जैसे
लब पे लाऊँ तो मेरे होंठ सियह हो जाएँ

[ 2 ]

आज हर सुर से हर इक राग का नाता टूटा
ढूँढती फिरती है मुतरिब * को फिर उसकी आवाज़
जोशिश-ए-दर्द * से मजनूँ के गरेबाँ की तरह
आज हर मौज हवा से है सवाली ख़िलक़त *
ला कोई नग़मा कोई सौत * तेरी उम्र दराज़
नौहा-ए-ग़म * ही सही शोर-ए-शहादत * ही सही
सूरे-महशर * ही सही बाँग-ए-क़यामत * ही सही

जुलाई, 1977




नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू ही सही...  

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हज़ार दर्द शब-ए-आरज़ू की राह में हैं
कोई ठिकाना बताओ के काफ़िला उतरे
क़रीब और भी आओ के शौक़-ए-दीद * मिटे
शराब और पिलाओ के कुछ नशा उतरे
-- फैज़

फैज़ की इस महफ़िल में आज उनकी एक बेहद ख़ूबसूरत ग़ज़ल "नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू ही सही" ले कर आयें हैं, ये ग़ज़ल उनकी असंकलित ग़ज़लों की श्रेणी में आती है, असंकलित इसलिए कि उनके किसी भी संग्रह में नहीं पायी जाती है. सुप्रसिद्ध गायिका बेग़म आबिदा परवीन ने फैज़ की इस ग़ज़ल को अपनी आवाज़ से नवाज़ा था, "फैज़ बाय आबिदा" नाम के एक एल्बम के लिये. तो आज हम इस ग़ज़ल को पढ़ेंगे भी और सुनेंगे भी पर उससे पहले चंद बातें इस ग़ज़ल, फैज़ की लेखनी और फैज़ के बारे में.

फैज़ की लेखनी में जो टशन था, बात को कहने का जो अंदाज़ था वो इस ग़ज़ल में बड़े ही बेहतरीन तरीक़े से उभर के आया है. अपनी बात को कहने का ये अंदाज़ ही फैज़ को उनके ज़माने के अन्य शायरों से जुदा करता है और यही कारण है कि उर्दू शेर-ओ-सुख़न के इतिहास में फैज़ को एक मुख्तलिफ़ और बेहद ऊँचा मक़ाम हासिल है, जिसे पिछले तकरीबन पचास सालों में भी कोई नहीं छू पाया है.

उर्दू के एक आलोचक मुमताज़ हुसैन के कथनानुसार -

"उसकी शायरी में अगर एक परम्परा क़ैस (मजनूं) की है तो दूसरी मन्सूर ** की. "फैज़" ने इन दोनों परम्पराओं को अपनी शायरी में कुछ इस प्रकार समो लिया है कि उसकी शायरी स्वयं एक परम्परा बन गई है. वह जब भी महफ़िल में आया, एक छोटी-सी पुस्तक, एक क़तआ, ग़ज़ल के कुछ शेर, कुछ यूँ-ही सा काव्य-अभ्यास और कुछ क्षमा-याचना की बातें ले कर आया, लेकिन जब भी आया और जैसे भी आया, खूब आया..."

** एक प्रसिद्ध ईरानी वाली जिनका विश्वास था की आत्मा और परमात्मा एक ही हैं और उन्होंने 'अनल-हक़' (सोऽहं - मैं ही परमात्मा हूँ) की आवाज़ उठाई थी. उस समय के मुसलमानों को उनका यह नारा अधार्मिक लगा और उन्होंने उन्हें फांसी दे दी.


नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू * ही सही
नहीं विसाल * मयस्सर * तो आरज़ू ही सही

न तन में ख़ून फ़राहम * न अश्क़ आँखों में
नमाज़-ए-शौक़ तो वाजिब * है बे-वज़ू * ही सही

यही बहुत है के सालिम * है दिल का पैराहन *
ये चाक़-चाक़ * गरेबाँ बे-रफ़ू * ही सही

किसी तरह तो जमे बज़्म * मयक़दे वालों *
नहीं जो बादा-ओ-साग़र * तो हा-ओ-हू * ही सही

गर इन्तज़ार कठिन है तो जब तलक ऐ दिल
किसी के वादा-ए-फ़र्दा * की गुफ़्तगू * ही सही

दयार-ए-ग़ैर * में महरम * अगर नहीं कोई
तो 'फ़ैज़' ज़िक्र-ए-वतन अपने रू-ब-रू * ही सही



आइये अब इस ग़ज़ल को सुनते हैं बेग़म आबिदा परवीन जी की आवाज़ में, उम्मीद है आपको भी पसंद आएगी -  



जो रुके तो कोहे-गराँ थे हम, जो चले तो जाँ से गुज़र गये...  

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दूर जा कर क़रीब हो जितने
हमसे कब तुम क़रीब थे इतने
अब न आओगे तुम न जाओगे
वस्ल-ओ-हिज्राँ * बहम * हुए कितने
-- फैज़


यूँ तो अपनी शायरी में और अपने चाहने वालों के दिलों में फैज़ आज भी ज़िन्दा हैं और हमेशा रहेंगे पर इस दुनिया से रुख़सत लिये हुए आज उन्हें पूरे छब्बीस साल हो गये. आज फैज़ की छब्बीसवीं बरसी पर आइये उन्हें याद करते हैं और एक छोटी सी श्रद्धांजलि देते हैं.

20 नवम्बर 1984 की दोपहर एक लम्बी बीमारी के बाद इस दुनिया को अलविदा कर फैज़ की क़लम और फैज़ दोनों हमेशा के लिये ख़ामोश हो गये... पर उनके इन्तेक़ाल के इतने बरस गुज़र जाने के बाद भी फैज़ की शायरी आज भी साँस लेती है और उनकी रूह आज भी ताज़ातन है हम सबके दिलों में. फैज़ को जितनी शोहरत अपने जीवनकाल में मिली उससे कहीं ज़्यादा इज्ज़त और शोहरत उसके बाद मिली.

फैज़ की शायरी एक बाक़ायदा "स्कूल ऑफ़ थॉट" का दर्जा रखती है. उर्दू शायरी से लगाव रखने वाला शायद ही कोई ऐसा शक्स होगा जो फैज़ की शायरी से प्रभावित ना हुआ हो. फिर चाहे वो हम और आप हों या कि आज के दौर के नामी गिरामी शायर और लेखक. आइये सुनते हैं जावेद अख्तर साहब, गुलज़ार साहब और ज़ेहरा नेगहा जी का फैज़ के बारे में क्या कहना है.




फैज़ की शायरी सिर्फ़ शायरी नहीं है उसका एक ख़ास मतलब है उनके पाठकों के लिये. वह सही मायनों में ज़िन्दगी की शायरी है - उसकी समग्रता का गर्माहट-भरा राग. लोग उसे दिल की गहराइयों से प्यार करते हैं और ज़िन्दगी के अहम मोड़ों पर उससे रौशनी पाते हैं.

फैज़ को श्रद्धांजलि देने की इस कड़ी में आइये आज पढ़ते हैं उनकी एक बेहद ख़ूबसूरत नज़्म "ढाका से वापसी पर" उनके कविता संग्रह "शाम-ए-शहर-ए-याराँ" से और उसके बाद इसी नज़्म को दो अलग लोगों से दो अलग अंदाज़ में सुनेंगे.


हम के ठहरे अजनबी इतनी मदारातों * के बाद
फिर बनेंगे आशना * कितनी मुलाक़ातों के बाद

कब नज़र में आयेगी बे-दाग़ सब्ज़े * की बहार
ख़ून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद

थे बहुत बे-दर्द लम्हें ख़त्म-ए-दर्द-ए-इश्क़ * के
थीं बहुत बे-महर * सुबहें मेहरबाँ रातों के बाद

दिल तो चाहा पर शिकस्त-ए-दिल * ने मोहलत * ही न दी
कुछ गिले-शिकवे भी कर लेते मुनाजातों * के बाद

उन से जो कहने गये थे "फ़ैज़" जाँ सदक़ा * किये
अनकही ही रह गई वो बत सब बातों के बाद

1974
शाम-ए-शहर-ए-याराँ

आइये अब इस नज़्म को सुनते हैं नय्यारा नूर जी की दिलकश आवाज़ में -


और अब इसी नज़्म का एक बिलकुल अलग अंदाज़ मुज़फ्फर अली जी के एल्बम "पैग़ाम-ए-मोहब्बत" से. मुज़फ्फ़र साहब ने बिलकुल अलग तरह का प्रयोग किया है इस नज़्म के साथ, उसे क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम की बंगाली कविता "मोनी पोड़े आज शे कोन" के साथ मिला कर. अब इसे फैज़ और नज़रुल के कलम का जादू कहिये या मुज़फ्फ़र साहब के संगीत की जादूगरी या फिर उस्ताद मोईन ख़ान और शोर्जू भट्टाचार्य जी की आवाज़ का कमाल कि दोनों ही गीत कुछ ऐसे घुल मिल गये हैं आपस में कि उर्दू और बंगाली का अंतर ही मिट गया है. सुनिये और ख़ुद ही महसूस कीजिये जो हम शब्दों में समझा नहीं पा रहे शायद...


चलते चलते बस इतना ही कहूँगी कि फैज़ को इतना पढ़ने समझने के बाद भी लगता है पता नहीं कितना समझ पायें हैं उनको, और जो भी समझा है क्या सही समझा है, क्या वही समझा है जो वो कहना चाह रहे थे...


जो रुके तो कोहे-गराँ * थे हम, जो चले तो जाँ से गुज़र गये
रहे-यार हमने क़दम क़दम तुझे यादगार बना दिया...


हमीं से सुन्नत-ए-मंसूर-ओ-क़ैस ज़िन्दा हैं...  

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हमारे दम से है कू-ए-जुनूँ * में अब भी ख़जल *
अबा-ए-शेख़-ओ-क़बा-ए-अमीर-ओ-ताज-ए-शही *
हमीं से सुन्नत-ए-मंसूर-ओ-क़ैस * ज़िन्दा हैं
हमीं से बाक़ी है गुलदामनी-ओ-कजकुलही *

-- फैज़

आज आप सब के लिये फैज़ की एकदम अलग तरह की नज़्म से ले कर आये हैं. रोमांसवाद से पूर्णतयः मुक्त जिसे पढ़ कर आप शायद समझ सकें की फैज़ के कलम की ताकत से पाकिस्तान की सरकार किस कदर खौफ़ खाती थी. फैज़ की शायरी में जो पूरी अवाम के जज़्बातों को एक साथ झंकझोर देने की कला थी उसी के चलते उन्हें अपने जीवनकाल में तमाम बार जेल हुई और देश निकाला मिला... क्यूँकि सरकार को डर था की गर फैज़ यूँ ही लिखते रहे तो अवाम बाग़ी हो जायेगी.

उर्दू क्लासिकल शायरी के मुहावरों और हुस्न के रसाव से विपरीत एकदम अलग तरह की उपमाओं और प्रतीकों से सजी आज की नज़्म "कुत्ते" उनके पहले कविता संग्रह "नक्श-ए-फ़रियादी" से ली है. यहाँ कुत्ते उन बेघर लोगों के प्रतीक हैं, जो अपनी रातें फुटपाथ पर बिताते हैं, आवारा घूमते हैं, ज्यों-त्यों पेट भरते हैं और सबकी फटकार सहते हैं. इनमें ज़िन्दगी का यथार्थ भी है और ज़िन्दगी को बदलने की प्रबल इच्छा भी है. यह शायरी जहाँ मध्य वर्ग के असंतुष्ट युवकों को पसंद आती है, वहाँ उच्च वर्ग को भी अखरती नहीं क्यूँकि ये आवारा कुत्ते कभी बगावत नहीं करते, दुम हिलाओ तो ज़्यादा-से-ज़्यादा भौंकते हैं और फिर चुप हो जाते हैं.

ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते
के बख्शा गया जिनको ज़ौक-ए-गदाई *
ज़माने की फटकार सरमाया * इन का
जहाँ भर की दुत्कार इनकी कमाई

न आराम शब की न राहत सवेरे
गिलाज़त * में घर, नालियों में बसेरे
जो बिगड़ें तो इक दूसरे से लड़ा दो
ज़रा एक रोटी का टुकड़ा दिखा दो
ये हर एक की ठोकरें खाने वाले
ये फ़ाकों * से उकता के मर जाने वाले

ये मज़लूम मखलूक * गर सर उठाये
तो इन्सान सब सरकशी * भूल जाये
ये चाहें तो दुनिया को अपना बना लें
ये आक़ाओं * की हड्डियाँ तक चबा लें

कोई इनको एहसास-ए-ज़िल्लत * दिला दे
कोई इनकी सोयी हुई दुम हिला दे

दोस्तों बज़्म सजाओ के बहार आयी है...  

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आ गई फ़स्ल-ए-सुकूँ चाक़ गरेबाँ वालों
सिल गये होंठ, कोई ज़ख्म सिले या न सिले
दोस्तों बज़्म सजाओ के बहार आयी है
खिल गये ज़ख्म, कोई फूल या न खिले
-- फैज़


"फूलों की शक्ल और उनकी रंग-ओ-बू से सराबोर शायरी से भी अगर आँच आ रही है तो यह मान लेना चाहिये कि फैज़ वहाँ पूरी तरह मौजूद हैं. फैज़ की शायरी की ख़ास पहचान ही है - रोमानी तेवर में भी ख़ालिस इन्क़लाबी बात." कितनी सही बात लिखी है प्रतिनिधि कविताओं में फैज़ की शायरी के बारे में.

आज आप सबकी पेश-ए-नज़र "शाम-ए-शहर-ए-याराँ" से फैज़ की एक बेहद ख़ूबसूरत नज़्म ले कर आये हैं. जो हमारी पसंदीदा है शायद तब से जब फैज़ को समझना भी शुरू नहीं करा था, सिर्फ़ इसे सुना था टीना सानी जी की आवाज़ में, सही बताऊँ तो तब ये भी नहीं पता था की टीना सानी नाम की कोई मशहूर पाकिस्तानी गायिका भी हैं जिन्होंने इस नज़्म को इस ख़ूबसूरती से गया है. ख़ैर नज़्म बाद में सुनते हैं पहले कुछ बात फैज़ साहब के बारे में...

फैज़ की शायरी के बहुआयामी फ़लक के बारे में उर्दू के एक बुज़ुर्ग शायर 'असर' लखनवी साहब कहते हैं -

"फैज़ की शायरी तरक्क़ी के मदारिज (दर्जे) तय करके अब इस नुक्ता-ए-उरूज (शिखर-बिंदु) पर पहुँच गई है, जिस तक शायद ही किसी दूसरे तरक्की-पसंद शायर की रसाई हुई हो. तख़य्युल (कल्पना) ने सनाअत (शिल्प) के जौहर दिखाए हैं और मासूम जज़्बात को हसीन पैकर (आकार) बक्शा है. ऐसा मालूम होता है की परियों का एक गौल (झुण्ड) एक तिलिस्मी फ़ज़ा (जादुई वातावरण) में इस तरह से मस्त-ए-परवाज़ (उड़ने में मस्त) है कि एक पर एक की छूत पड़ रही है और कौस-ए-कुज़ह (इन्द्रधनुष) के अक्क़ास (प्रतिरूपक) बादलों से सबरंगी बारिश हो रही है....."

फैज़ की शायरी की इस ख़ूबसूरत तारीफ़ के फ़लक को आइये थोड़ा और कुशादा करते हैं और पढ़ते और सुनते हैं उनकी ये ख़ूबसूरत नज़्म "बहार आई" जो एक पंक्ति में बोला जाये तो बस इतना सा मतलब है की वो सारे ज़ख्म, वो सारे दर्द जो किसी के जाने से मिले थे, बीता हुआ समय जिन्हें मद्धम कर चुका था, बहार के आने से एक बार फिर खिल उठे हैं, हरे हो गये हैं... पर ये फैज़ के शब्दों का ही जादू है की दर्द भी कितना ख़ूबसूरत लग रहा है उनसे सज के...

बहार आई तो जैसे एक बार
लौट आये हैं फिर अदम * से
वो ख़्वाब सारे, शबाब सारे
जो तेरे होंठों पे मर मिटे थे
जो मिट के हर बार फिर जिये थे
निखर गये हैं गुलाब सारे
जो तेरी यादों से मुश्कबू * हैं
जो तेरे उश्शाक़ * का लहू हैं

उबल पड़े हैं अज़ाब * सारे
मलाल-ए-एहवाल-ए-दोस्ताँ * भी
ख़ुमार-ए-आग़ोश-ए-महवशां * भी
गुबार-ए-ख़ातिर के बाब * सारे
तेरे हमारे
सवाल सारे, जवाब सारे
बहार आई तो खुल गये हैं
नये सिरे से हिसाब सारे !


- अप्रैल, 1975
शाम-ए-शहर-ए-याराँ





मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब ना माँग...  

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न आज लुत्फ़ कर इतना के कल गुज़र न सके
वो रात जो के तेरे गेसुओं की रात नहीं
ये आरज़ू भी बड़ी चीज़ है मगर हमदम
विसाल-ए-यार फ़क़त आरज़ू की बात नहीं
-- फैज़

फैज़ की इस बज़्म-ए-सुख़न में आज उनकी जिस नज़्म को आपके रु-बा-रु ले कर आयें हैं वो "नक्श-ए-फ़रियादी" के दूसरे भाग से ली गयी है. यानी 1935 के बाद की रचना है. ये वो दौर था जब फैज़ की लेखनी रोमांसवाद की नर्मी को छोड़ कठोर भौतिकवाद की तरफ़ रुख कर चुकी थी.

वो दौर जब समूचा विश्व 1930 की विश्व मंदी से गुज़र रहा था. उस दौर के हालात, किसानों और मजदूरों के आन्दोलन और 1936 में मुंशी प्रेमचंद, सज्जाद ज़हीर और मौलवी अब्दुल हक़ के नेतृत्व में प्रगतिशील आन्दोलनों के शुभारम्भ इस नौजवान शायर के ह्रदय व मस्तिष्क को इस कदर झंझोड़कर रख देते हैं की वो ऊँचे स्वर में ये घोषणा करता है - "अब मैं दिल बेचता हूँ और जान खरीदता हूँ" *

* "दिल ब-फ़रोख्तम जाने ख़रीदम" - ' निज़ामी ' की फ़ारसी पंक्ति

और "नक्श-ए-फ़रियादी" के दूसरे भाग की शुरुआत होती है "मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब ना माँग" जैसी नज़्म के साथ, जो उस दौर के नौजवानों की आवाज़ बन गयी थी. ये एक ऐसी नज़्म है जिसे रोमान और यथार्थ का, प्यार और कटुता का सुन्दर सामंजस्य कहा जा सकता है. तो आइये पढ़ते हैं इस नज़्म को और जानते हैं कि कैसे वास्तविकता और हालात एक शायर की रोमानवी शायरी को हक़ीक़त का जामा पहना कर यथार्थवादी बना देते हैं.


मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब ना माँग
मैंने समझा था के तू है तो दरख़्शां * है हयात *
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का * झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में * बहारों को सबात *
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है


तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूँ हो जाये *
यूँ ना था, मैंने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाये
और भी दुःख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें हैं और भी हैं वस्ल की राहत * के सिवा


अनगिनत सदियों से तारीक बहीमाना तिलिस्म *
रेशम-ओ-अतलस-ओ-किमख़्वाब * में बुनवाये हुए
जा-ब-जा * बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लिथड़े हुए, ख़ून में नहलाए हुए
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों * से
पीप * बहती हुई गलते हुए नासूरों * से


लौट जाती है इधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुःख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न माँग !


फैज़ की इस नज़्म को अपनी मखमली आवाज़ दी थी मल्लिका-ए-तरन्नुम नूरजहाँ जी ने और उसे सुनने के बाद फैज़ ने कहा था "नूरजहाँ अब ये हमारी नहीं रही तुम्हारी हो गयी..." आइये हम भी सुनते हैं और जानते हैं फैज़ साहब ने ऐसा भला क्यूँ कहा...

फैज़ की याद में...  

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हम सहलतलब* कौन से फरहाद* थे लेकिन
अब शहर में कोई तेरे हम सा भी कहाँ है
-- फैज़

फैज़ को जानने, समझने और आप सभी तक सही ढंग से पहुँचाने की कोशिश में इन दिनों काफ़ी कुछ पढ़ा उनके बारे में किताबों में और इन्टरनेट पर भी. इसी सिलसिले में एक दिन "यू ट्यूब" पर कुछ वीडियो देखे. 20 नवम्बर 2008 को फैज़ की चौबीसवीं बरसी के मौके पर "समा टी.वी." नाम के एक पाकिस्तानी टी.वी. चैनल ने फैज़ पर श्रद्धांजलि के रूप में एक कार्यक्रम पेश किया था. इसे बहुत ही उम्दा तरीके से प्रस्तुत किया मशहूर एंकर/प्रोड्यूसर, मेहेर बोख़ारी जी ने. स्टूडियो में फैज़ के बारे में बात करने आये थे फैज़ के बेहद क़रीबी दोस्त, हमीद अख्तर साहब और फैज़ के बड़े नवासे यासिर हाशमी जी, और साथ ही एक और मशहूर शायर अनवर शऊर साहब भी लाहौर स्टूडियो से साथ में थे.

फैज़ के बारे में बातचीत का सिलसिला कुछ यूँ शुरू हुआ कि हम बिलकुल ठगे से सुनते रहे और एक के बाद एक पूरे कार्यक्रम के पाँचों विडियो कब देख डाले पता ही नहीं चला. अगर आप भी हमारी ही तरह फैज़ के मुरीद हैं और उनके बारे में और क़रीब से जानना चाहते हैं तो आपसे बस इतना ही चाहूँगी कि थोड़ा सा समय निकाल के इन विडियोज़ को एक बार ज़रूर देखें. वैसे हम कोशिश करते हैं यहाँ हर भाग में हुई बातचीत का थोड़ा सा सार आपको बताने की, फिर भी एक बार आप ख़ुद देखें तो अलग ही मज़ा आयेगा.

पूरे कार्यक्रम में बातचीत के दौरान जो एक बात उभर कर सामने आयी वो ये थी कि फैज़ ना सिर्फ़ एक तरक्क़ी पसंद, इन्क़लाबी शायर थे, बल्कि एक बेहद अच्छे, नर्म दिल, अपने उसूलों के पक्के और सबसे बड़ी बात की एक मुकम्मल इन्सान थे.

पहले भाग में हमीद अख्तर साहब फैज़ की शख्सियत के सबसे नुमाया पहलू के बारे में बात करते हुए बताते हैं की उनकी लेखनी ने किस कदर का असर डाला था उस समय (1940-41) के लोगों पर और उनका लिखा "मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब ना माँग" लोगों के लिये एक मिसाल बन गया था. वो ये भी कहते हैं की फैज़ की तारीफ़ जो नूरजहाँ ने करी है उससे बेहतर तारीफ़ तो कोई कर ही नहीं सकता. बकौल हमीद साहब, नूरजहाँ ने उनसे कहा था -

"मैं तो फैज़ पर मरती हूँ, मगर मुझे मालूम नहीं की मेरा क्या रिश्ता है... कभी मुझे वो शौहर नज़र आते हैं, कभी आशिक नज़र आते हैं, कभी महबूब नज़र आते हैं, कभी बाप नज़र आते हैं, कभी बेटा नज़र आते हैं..."

इसके अलावा अनवर साहब भी उनके बारे में बात करते हुए कहते हैं की वो बेहद शाइस्ता, नर्म और भले इन्सान थे और जो लोग डायबिटीज़ के मरीज़ हैं उन्हें फैज़ की शायरी नहीं पढनी चाहिये क्यूँ की वो बेहद मीठी होती है :)





दूसरे भाग में हमीद साहब "रावलपिंडी साज़िश केस" के बारे में तफ़सील से बात करते हैं और अपने समय के कई क़िस्से सुनते हुए कहते हैं की जितने बड़े वो शायर थे उससे कहीं बड़े वो इन्सान थे. इसके अलावा प्रसिद्द शायर और लेखक असग़र नदीम सैय्यद साहब और फैज़ की बेटी मोनीज़ा हाशमी जी भी फैज़ के बारे में बहुत सी बातें बतातें हैं. मोनीज़ा बताती हैं की वो बेहद शांतिप्रिय इन्सान थे पर उनकी इन्क़लाबी सोच की वजह से बहुत से लोग उन्हें नापसंद करते थे और उसकी वजह से उन्हें बहुत सी दिक्कतों का सामना भी करना पड़ा.





तीसरे भाग में यासिर बताते हैं कि फैज़ की बस एक कमजोरी थी कि वो ताक़त का इस्तेमाल नहीं कर सकते थे शायद इसी वजह से वो ट्रेड यूनियन और प्रैक्टिकल पौलिटिक्स में कभी सफल नहीं हो पाये क्यूँकि वो किसी से ज़ोर ज़बरदस्ती से काम नहीं करवा सकते थे. एक और बहुत ख़ूबसूरत बात पता चली की किस तरह फैज़ ने जेल और मोहब्बत की तुलना कर के कैसे जेलखाने को भी बेहद ख़ूबसूरत बना दिया. इसके अलावा अनवर शऊर साहब, हामिद साहब और यासिर इस बात पर अपनी-अपनी मुख्तलिफ़ राय देते हैं की फैज़ की शायरी आज भी आलमगीर (इटरनल) क्यूँ हैं, उनकी कही हुई बातें आज के परिपेक्ष में भी उतनी ही उपयुक्त लगती हैं जितनी की आज से साठ, सत्तर बरस पहले थीं.





चौथे भाग में फैज़ के नाती अदील हाशमी साहब से बातचीत होती है. अदील कहते हैं की कुछ बातें जैसे की प्यार, मोहब्बत और उम्मीद की बातें हमेशा ही उपयुक्त और प्रासंगिक लगती हैं, चाहे उन्हें कभी भी पढ़ा जाये ये लगता है की ये अभी ही लिखी गयी है आज ही के परिपेक्ष में. अदील ये भी कहते हैं अपने नाना के बारे में की उनमें जो एक मीठापन, धीमापन और सब्र था वो हर इन्सान में होना चाहिये. हमीद साहब बताते हैं की कैसे फैज़ की बीवी एलिस ने उनका साथ दिया सारी ज़िन्दगी और एक बार जब एलिस से पूछा गया की फैज़ की शायरी समझ आती है क्या उन्हें, तो वो बोली - "शायरी ना सही शायर को तो समझती हूँ".

फैज़ के दामाद सोहेल हाशमी साहब बताते हैं की किस तरह उन्होंने फैज़ साहब से, उनकी बेटी सलीमा से निक़ाह की बात करी और सलीमा जी बताती हैं की फैज़ बिलकुल भी सख्त नहीं थे और एक पिता कम, दोस्त ज़्यादा थे और वो हँसी हँसी में कहती हैं की उनसे कभी भी डर नहीं लगा, वो तो अपनी पार्टी के बन्दे थे.





पांचवे और अंतिम भाग में यासिर बतातें हैं की आज के दौर के लोगों के लिये, ख़ासकर युवा पीढ़ी के लिये, फैज़ को पढ़ने से पहले ये जानना बहुत ज़रूरी है कि वो सिर्फ़ एक रूमानी शायर नहीं थे बल्कि एक बहुत बड़े इन्क़लाबी शायर थे और क्यूँकि वो उस समय की कद्रों के सख्त खिलाफ थे इस वजह से उन्हें जेल में डाला गया था और उनके लफ़्जों में वो ताक़त थी, वो असर था कि वो पूरी आवाम को उकसा सकते थे, उसमें हलचल मचा सकते थे और शायद इसी वजह से उन्हें क़रीब 6 सालों के लिये देश निकाला भी मिला था.





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फैज़ की महफ़िल हो और उनकी कोई ग़ज़ल ना पढ़ी जाये ऐसा भला कैसे हो सकता है... नहीं तो महफ़िल अधूरी ही रह जायेगी... आज की ग़ज़ल, फैज़ के कविता संग्रह "ज़िन्दाँनामा" से ली है, जो उन्होंने जेल में लिखा था और ये ग़ज़ल वाकई इस बात की पुष्टि करती है कि वो फैज़ का ही हुनर था कि उन्होंने जेल के माहौल को भी मोहब्बत सा ख़ूबसूरत बना दिया.


गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौबहार* चले
चले भी आओ कि गुलशन* का कारोबार चले

कफ़स* उदास है, यारों सबा* से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा* आज ज़िक्र-ए-यार* चले

कभी तो सुब्ह तेरे कुंज-ए-लब से* हो आगाज़*
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्कबार* चले

बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे आयेंगे, ग़मगुसार* चले

जो हम पे गुज़री सो गुज़री है शब-ए-हिज्राँ*
हमारे अश्क़ तेरी आक़बत* सँवार चले

हुज़ूर-ए-यार* हुई दफ़्तर-ए-जुनूँ की* तलब
गिरह में लेके गरेबाँ का तार-तार चले

मुक़ाम* "फैज़" कोई राह में जचा ही नहीं
जो कू-ए-यार* से निकले तो सू-ए-दार* चले


मांटगोमरी जेल
29 जनवरी 1954


* इन शब्दों का अर्थ जानने के लिये माउस उसके ऊपर ले जाएँ

रात यूँ दिल में तेरी खोई हुई याद आयी...  

Posted by richa in ,

रात यूँ दिल में तेरी खोई हुई याद आयी
जैसे वीराने में चुपके से बहार आ जाये
जैसे सहराओं* में हौले से चले बादे-नसीम*
जैसे बीमार को बे-वज्ह क़रार आ जाये
-- फैज़

इन ख़ूबसूरत रूमानी पंक्तियों के साथ आगाज़ होता है फैज़ के पहले कविता संग्रह 'नक्श-ए-फ़रियादी' का और आज जो ग़ज़ल आपके साथ बांटने जा रही हूँ वो भी इसी संग्रह से है - नसीब आज़माने के दिन आ रहे हैं...

इस ग़ज़ल को पढ़ने से पहले आइये जानते हैं ख़ुद फैज़ साहब का इस किताब और इसकी नज़्मों के बारे में क्या कहना था.

नक्श-ए-फ़रियादी चंद गज़लों, नज़्मों और कतओं से सजा एक छोटा सा कविता संग्रह है, किसी छोटे से गुलदस्ते की मानिंद, जिसमें सजा हर फूल उतना ही ख़ुशबूदार है... पर फैज़ इस बात से शायद सहमत नहीं थे, शायद यही वजह थी की उन्होंने नक्श-ए-फ़रियादी की संक्षिप्त भूमिका में लिखा है,


"इस मज़्मुआ (संकलन) की इशाअत (प्रकाशन) एक तरह एतराफे-शिकस्त (पराजय की स्वीकृति) है. शायद इसमें दो बार नज्में क़ाबिल-ए-बर्दाश्त हों. लेकिन दो-बार नज़्मों को किताबी सूरत में तबा करवाना (छपवाना) मुमकिन नहीं. उसूलन मुझे इंतज़ार करना चाहिये था की ऐसी नज्में ज़्यादा तादाद में जमा हो जाएँ. लेकिन यह इंतज़ार कुछ अबस (व्यर्थ) मालूम होने लगा है. शेर लिखना जुर्म न सही, लेकिन बेवजह शेर लिखते रहना कुछ ऐसी दानिशमंदी (अक्लमंदी) भी नहीं....."


लेखन के बारे में फैज़ की राय स्पष्ट है, कि बेवजह कुछ भी लिखते रहना सिर्फ़ लिखने के लिये कोई समझदारी की बात नहीं है. कोई वजह बहुत ज़रूरी है, कुछ ऐसा जो आपको दिल से सोचने और लिखने के लिये मजबूर कर दे, फिर चाहे वो वजह मोहब्बत हो, सियासत हो या सामाजिक हो. क्यूँकि लिखते लिखते या बोलते बोलते, अभ्यास से, किसी को भी लिखने और बोलने का सलीक़ा तो आ जाता है पर जब तक आप किसी चीज़ को दिल से महसूस नहीं करते आपकी बात में वज़न नहीं आता और आप उसे सही ढंग से लोगों तक पहुँचा नहीं पाते.

आइये अब इस ग़ज़ल के बारे में जानते हैं. ये ग़ज़ल 'नक्श-ए-फ़रियादी' के पहले भाग (1928 से 1935 तक) में शामिल है, यानी ये फैज़ के लेखन के शुरूआती दौर की है, जब रूमानियत उनकी ग़ज़लों और नज़्मों का मौज़ू हुआ करती थी.

नसीब आज़माने के दिन आ रहे हैं
क़रीब उनके आने के दिन आ रहे हैं

जो दिल से कहा है, जो दिल से सुना है
सब उनको सुनाने के दिन आ रहे हैं

अभी से दिल-ओ-जां सर-ए-राह रख दो
के लुटने-लुटाने के दिन आ रहे हैं

टपकने लगी उन निगाहों से मस्ती
निगाहें चुराने के दिन आ रहे हैं

सबा* फिर हमें पूछती फिर रही है
चमन को सजाने के दिन आ रहे हैं

चलो 'फ़ैज़' फिर से कहीं दिल लगायें
सुना है ठिकाने के दिन आ रहे हैं


आज के लिये बस इतना ही... मिलती हूँ अगली पोस्ट में... तब तक आपको नय्यारा नूर जी के साथ छोड़े जा रही हूँ... उनकी आवाज़ में सुनिये - रात यूँ दिल में तेरी खोई हुई याद आयी...




* इन शब्दों का अर्थ जानने के लिये माउस उसके ऊपर ले जाएँ

"शेर लिखना जुर्म ना सही, लेकिन बेवजह शेर लिखते रहना ऐसी दानिशमंदी भी नहीं...." -- फैज़  

Posted by richa in ,


बात बस से निकल चली है
दिल की हालत संभल चली है
अब जुनूं हद से बढ़ चला है
अब तबीयत बहल चली है
-- फैज़


फैज़ की शेर-ओ-शायरी से रु-बा-रु होने से पहले आइये मिलते हैं फैज़ से... यूँ तो फैज़ की शख्सियत और फ़न के बारे में कुछ भी कहने की ना तो हैसियत है हमारी ना ही हम ये हिमाक़त कर सकते हैं... बस जो थोड़ा बहुत उनके बारे में पढ़ा और जाना है वो ही आप सब के साथ बाँट रही हूँ...

3 फरवरी सन 1911 को, जिला सियालकोट(बंटवारे से पूर्व पंजाब)के कस्बे कादिर खां के एक अमीर पढ़े लिखे ज़मींदार ख़ानदान में जन्मे फैज़ अहमद फैज़ आधुनिक काल में उर्दू अदब और शायरी की दुनिया का वो रौशन सितारा हैं जिनकी गज़लों और नज़्मों के रौशन रंगों ने मौजूदा समय के तकरीबन हर शायर को प्रभावित किया है.

सुल्तान फातिमा और सुल्तान मोहम्मद खां के बेटे के रूप में उन्हें एक सौभाग्यपूर्ण बचपन मिला. उनकी तालीम की शुरुआत चार बरस की छोटी सी उम्र में हुई जब उन्होंने कुरान कंठस्थ करना शुरू किया. इस शैक्षिक सफ़र में मैट्रिक और इंटरमीडिएट की परीक्षा फर्स्ट डिविज़न से पास करने के बाद गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर से बी.ए. और फिर अरबी में बी.ए. ऑनर्स करा. तपश्चात गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर से ही, सन 1933 में अंग्रेजी और 1934 में ओरिएंटल कॉलेज, लाहौर से अरबी में फर्स्ट डिविज़न के साथ एम. ए. की डिग्री हासिल करी.

उनके विद्यार्थी जीवन की एक विशेष घटना का जिक्र एक किताब में पढ़ा था, आप भी सुनिये, हुआ ये की जब वो गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर में पढ़ते थे तो प्रोफेसर लेंग साहब जो उन्हें अंग्रेज़ी पढाया करते थे, फैज़ की योग्यता से इतना प्रसन्न थे की उन्होंने परीक्षा में फैज़ को 150 में से 165 अंक दिये और जब एक विद्यार्थी ने आपत्ति उठाई की आपने फैज़ को इतने अंक कैसे दिये तो उन्होंने उत्तर दिया "इसलिए कि मैं इससे ज़्यादा दे नहीं सकता था"

सन 1935 में एम. ए. ओ. कॉलेज, अमृतसर में प्राध्यापक के तौर पे नियुक्ति के साथ मुलाज़मत का सिलसिला शुरू हुआ. 1940 से 1942 तक उन्होंने लाहौर के हेली कॉलेज में अंग्रेज़ी पढ़ाई. इसी दौरान एक ब्रिटिश प्रवासी महिला मिस एलिस जॉर्ज के साथ निकाह किया.

इस दरमियान उनकी कुछ और साहित्यिक गतिविधियाँ भी चलती रहीं. 1938 से 1939 तक उन्होंने उर्दू की प्रसिद्द साहित्यिक पत्रिका 'अदब-ए-लतीफ़' का सम्पादन किया. इसके अलावा फैज़ अंग्रेज़ी दैनिक 'पकिस्तान टाइम्स' और उर्दू दैनिक 'इमरोज़' और साप्ताहिक 'लैलो-निहार' के प्रधान सम्पादक भी रहे.

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, सन 1942 में कैप्टन के पद पर फ़ौज में भारती होकर फैज़ लाहौर से दिल्ली आ गये और 1947 तक कर्नल की हैसियत से फ़ौज में रहे. 1947 में भारत-पाक विभाजन के बाद उन्होंने फ़ौज से इस्तीफ़ा दे दिया और लाहौर चले आये.

विभाजन के कारण हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों ही जगह काफ़ी अशांति थी और ख़ास तौर पर पाकिस्तान की स्थिति बहुत अस्थिर थी. इस दौरान भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने सैयद सज्जाद ज़हीर को कुछ अन्य नेताओं के साथ पाकिस्तान में इंक़लाब करने भेजा था. सज्जाद ज़हीर के फैज़ से घनिष्ठ संबध थे और फैज़ क्यूँकि फ़ौज में अफ़सर रह चुके थे इसलिए पाकिस्तान के फौजी अफसरों के साथ उनके गहरे सम्बन्ध थे. 1951 में सज्जाद ज़हीर और फैज़ को दो अन्य फौजी अफसरों के साथ रावलपिंडी कॉन्सपिरेसी केस के सिलसिले में गिरफ्तार कर लिया गया और मार्च 1951 से अप्रैल 1955 तक वो जेल में रहे.

फैज़ का लेखन वक़्त और हालातों के साथ विकसित हुआ. फैज़ की शुरूआती दौर की रचनायें काफ़ी हद तक हल्की फुल्की, बेफिक्र, ख़ुशहाल, प्यार और ख़ूबसूरती से सजी हुई थीं, पर समय के साथ उनका लेखन काफ़ी गंभीर और सियासी और सामाजिक हालातों से प्रभावित होता गया. काफ़ी हद तक उन्नीसवीं शताब्दी के मशहूर शायर मिर्ज़ा ग़ालिब की ही तरह फैज़ का बात कहने का लहज़ा भी तल्ख़ और रुखा हो गया, जो अक्सर आम आवाम और विशिष्ठ वर्ग के बीच विवाद छेड़ता हुआ सा प्रतीत होता था.

उनका पहला कविता संग्रह 'नक्श-ए-फ़रियादी' 1941 में लखनऊ से प्रकाशित हुआ था. 'ज़िन्दाँनामा' उनकी जेल के दिनों की शायरी का संग्रह है. अपनी तमाम उथल-पुथल भरी ज़िन्दगी में भी फैज़ लगातार लिखते रहे और उनके संग्रह प्रकाशित होते गये, और फैज़ हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों ही मुल्कों में उर्दू ज़ुबां के सबसे ज़्यादा पढ़े जाने वाले शायरों में शुमार हो गये.

1962 में फैज़ 'लेनिन शान्ति पुरस्कार' से नवाजे जाने वाले पहले एशियाई बने. 1984 में उनकी मृत्यु से पूर्व उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिये भी नामांकित किया गया था. फैज़ को दमे का रोग था जो बढ़ते बढ़ते लाइलाज हो गया था और 20 नवम्बर 1984 को वो इस दुनिया को अलविदा कह के हमेशा के लिये रुखसत हो गये.

तो ये था एक संक्षिप्त सा परिचय एक बुलंद शक्सियत का. संक्षिप्त इसलिए कह रही हूँ की अगर लिखने बैठूं तो जाने और कितना कुछ है उनके बारे में लिखने को, पर वो इस ब्लॉग का मकसद नहीं है. हमें तो उनकी लेखनी से आपको रु-बा-रु करवाना है. तो आइये साथ मिल कर इस महफ़िल-ए-शेर-ओ-सुखन की इब्तिदा करते हैं फैज़ के लिखे हुए पहले शेर से -

लब बन्द हैं साक़ी, मेरी आँखों को पिला दे
वो जाम जो मिन्नतकशे-सहबा* नहीं होता


[ 1928 में कॉलेज ऑफ़ सियालकोट की साहित्यिक संस्था 'अख़वानुस्सफ़ा' के तरही मुशायरे में पढ़ी गयी ग़ज़ल का पहला शेर. फैज़ तब इंटरमीडिए के छात्र थे ]


* मदिरा के लिये इच्छुक

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