इस तरह है कि पस-ए-पर्दा कोई साहिर है...  

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फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और उनकी लेखनी उनके जमाने से कहीं और अधिक आज प्रासांगिक है। उनका व्यक्तित्व, चिंतन, संघषर्शीलता और शायरी को पसंद करने वाले उर्दू के साथ-साथ हिन्दी में भी समान संख्या में हैं। उनकी जन्म शताब्दी वर्ष पर विशेष -

न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई


एक शायर है जो कलम को पन्नों पर टिकाता है तो प्रकृति के, प्रेम के, रूमानियत के नक्श उतरते चले जाते हैं। ऐसे लगता है कि ये पेड़, रात, हवाएं, मंदर और मंजर सब के सब एकसाथ बोल उठेंगे। आपके साथ चल पड़ेंगे, आप सोएंगे तो ख़्वाबों में थपकियां देंगे, आप जागेंगे तो आपको एहसास-ए-जिंदगी बक्शेंगे। मुनीज़ा की सालगिरह आपकी अपनी बेटी की सालगिरह बन जाएगी। दरख़्त मंदिरों की शक्ल ले लेंगे। आसमां की नदिया ठहर जाएगी और आपका मेहबूब आपसे पहली-सी मोहब्बत मांग बैठेगा।

एक शायर है जो कलम को पन्नों की छाती पर टिकाता है तो रौशनाई खून में तब्दील हो जाती है। अफ़्सुर्दगी और एहसास-ए-हक़ीक़त इंकलाब की लौ में आंखों की चमक बन जाती है, हंसीं खेतों का जोबन फट जाता है और उनमें क्रांति की कोपलें आसमान को चीरकर आगे निकल जाने के लिए पैदा होने लगती है। कलम जैसे-जैसे पन्नों को चीरती हुई आगे बढ़ती है, सरकारों और व्यवस्था का बुर्क़ा चिरता चला जाता है, सच्चाई का अक्स सामने आ जाता है, बगुलों और भेड़ियों की शक्लें साफ़ समझ आने लगती हैं। इनकी चालाकियां, इनकी साज़िशें और इनकी तैयारी बेपर्दा हो जाती है। हम सच भी जान लेते हैं और सच से लड़ने का हौसला भी हासिल करते हैं। रोज की दर्दनाक बेवक्त मौतों के खिलाफ रगों में पानी का रंग सुर्ख़ लाल होने लगता है और हम इंकलाब की तैयारी करने लगते हैं।

इन दोनों ही शायरों का एक नाम है - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

20वीं सदी का वो महान उर्दू शायर जिसने सरकारी तमगों और पुरस्कारों के लिए नहीं, जिसने शराब की चाशनी में डूबती-नाचती महबूबाओं के लिए नहीं, जिसने मज़ारों और बेवफ़ाईयों के लिए नहीं बल्कि अपने इंसान होने के एहसास, समाज और देश के लिए, एक सही और बराबरी की व्यवस्था वाले लोकतंत्र के लिए इंकलाब को अपने कलम की स्याही बनाया और ज़ुल्म-ओ-सितम में जी रहे लोगों को वो दिया जो बंदूकों और तोपखानों से बढ़कर था। फ़ैज़ की कविताओं में जितना जिंदा वो सच है जिसमें हम जी रहे हैं, उतना ही जिंदा वो हौसला है जिसकी बदौलत आदम-ओ-हव्वा की औलादें अपने वर्तमान को बदल सकती हैं। वो कहते हैं-

बोल के लब आजाद हैं तेरे
बोल ज़बां अब तक तेरी है
तेरा सुतवां जिस्म है तेरा
बोल के जां अब तक तेरी है

या फिर-


हम परवरिश-ए-लौह-ओ-कलम करते रहेंगे
जो दिल पे गुज़रती है, रक़म करते रहेंगे

इस तैयारी के लिए लोगों का आह्वान करते हुए फ़ैज़ केवल हाथों में मशालें नहीं पकड़ाते बल्कि साथ ही यह विश्वास भी दिलाते हैं कि जीत आखिर सच की और सच के लिए लड़ने वालों की ही होगी। वो कहते हैं-

यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़
न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई
यूँ ही हमेशा खिलाए हैं हमने आग में फूल
न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई।

शोषण, दमन और बंदरबांट को जिस खूबसूरती से फ़ैज़ नंगा करके लोगों के सामने लाते हैं, वो बेमिसाल है। पर जब फ़ैज़ इश्क़ भी करते हैं तो लगता है कि न जाने कोई हाड़-मांस की महबूबा है या इंकलाब का परचम थामे हुए क्रांति खड़ी है जिसके लिए वो दीवाने हुए जाते हैं। और इसीलिए जब रूमानियत की या इंकलाब की कविताओं की बात अलग-अलग उठती है तो फ़ैज़ तराजू के दोनों ओर बराबर वज़नदार मालूम देते हैं। कोई भी इंकलाबी कवि या शायर रूमानी भी हो सकता है या होता है, ऐसे जुमलों का सबसे सटीक और मज़बूत उदाहरण फ़ैज़ हैं। फ़ैज़ की शताब्दी में यह खासियत उनसे पहले मजाज़ लखनवी में ही दिखती है, बाकी इस स्तर की किसी और उर्दू शायर में नहीं और इसीलिए 20वीं सदी में फ़ैज़ सबसे सशक्त उर्दू शायर के तौर पर उभरकर सामने आते हैं।

फ़ैज़ केवल पाकिस्तान के नहीं थे। जब वो पैदा हुए तो भारत और पाकिस्तान एक ही थे। कम लोगों को मालूम है कि लाहौर में सांडर्स की हत्या के लिए भगत सिंह और साथियों की पिस्तौल से चली गोली की आवाज सुनने वालों और फिर भागते क्रांतिकारियों को देखने वालों में से एक फ़ैज़ भी थे, अपने हॉस्टल की छत पर टहलते हुए अचानक ही इस ऐतिहासिक पल के वे साक्षी बने थे। पाकिस्तान बना पर भगत सिंह फ़ैज़ के दिल में कायम रहे. बिना किसी परवाह के फ़ैज़ के लिए धरती पर सबसे ज्यादा पसंदीदा और प्रभावित करनेवाला नाम भगत सिंह बने रहे। और फिर दक्षिण एशिया क्या, दुनिया के तमाम कोनों में फ़ैज़ कभी मर्ज़ी से, कभी मजबूरी में पहुंचे। अपने संघर्ष के तरानों को दूसरों के लिए लिखते हुए उन्होंने दुनियाभर में शोषण और अत्याचार के खिलाफ़ अपनी कविताओं को बुलंद किया।

भविष्य का सपना दिखाती सत्ता और लोगों की साज़िशों ने भूमंडलीकरण और खुली अर्थव्यवस्थाओं की पोटली पर विकास की पर्ची चस्पा कर दी है ताकि आंखमिचौली के खेल में हमारे लुट जाने का हमें एहसास तक न होने पाए और जो हो तो तबतक सबकुछ मुट्ठी की रेत की तरह हाथ से निकल चुका हो। इसे फ़ैज़ बखूबी पहचानते थे और इसीलिए आज जब हम देखते हैं कि सरकारों में किस कदर सेंध लगाकर शोषक पैठ बना चुका है, जब हम लोकतंत्र के नाम पर दुनियाभर के तमाम देशों में एक खोखली और शोषणकारी व्यवस्था देखते हैं, जब हम अमरीका और यूरोप की करतूतों और उन पर लिपटे सभ्य होने के सफेद लिहाफों को देखते हैं, जब हम उन झूठे सपनों की ओर देखते हैं जिसमें विकास की चमकती दमकती, गगनचुंबी तिलिस्मी तस्वीर पूरी दुनिया को अपने मकड़जाल में कसती जा रही है और इन सबके खिलाफ जब हम जल, जंगल, जमीन, मानवाधिकारों और बराबरी पर आधारित व्यवस्था की लड़ाइयों के मोर्चे दुनियाभर में देखते हैं, फ़ैज़ और अधिक प्रासंगिक हो जाते हैं।

फ़ैज़ तब तक साहित्य की क्यारियों में महकते रहेंगे, उनकी कविताओं की किताबें, डायरी के पन्ने और कतरने तब तक ज़िन्दा और प्रासंगिक बने रहेंगे जब तक कि पूरी दुनिया में किसी एक भी इंसान के साथ अन्याय और शोषण होता रहेगा। वजह यह है कि फ़ैज़ भी कबीर की तरह दूर तक देख रहे हैं, उस हकीकत को जो हम सब के इंसान होने की सच्चाई पर हमें फिर से सोचने को मजबूर करती है। यही वजह है कि आज जब दुनिया में अलग-अलग देशों में एक जैसी तकलीफों के लिए इंकलाब करते, विद्रोह करते लोग नजर आते हैं, फ़ैज़ साथ खड़े मिलते हैं। चौराहों पर, तख्तियों पर, पोस्टरों और कमीजों पर, हर जगह एक साहस देते और रास्ता दिखाते साथी की तरह।

-- पाणिनि आनंद

साभार : राष्ट्रीय सहारा, रविवारीय परिशिष्ट, २७ मार्च २०११

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फ़ैज़ के बारे में इतना अच्छा लेख पढ़ने के बाद आइये उनकी एक ख़ूबसूरत सी नज़्म भी पढ़ते हैं, "शाम" जो उनके संग्रह "दस्त-ए-तह-ए-संग" से ली गई है.


इस तरह है कि हर एक पेड़ कोई मंदिर है
कोई उजड़ा हुआ, बे-नूर पुराना मंदिर
ढूंढ़ता है जो ख़राबी के बहाने कब से
चाक हर बाम, हर एक दर का दम-ए-आख़िर है
आस्मां कोई पुरोहित है जो हर बाम तले
जिस्म पर राख मले, माथे पे सिंदूर मले
सर-निगूं बैठा है चुपचाप न जाने कब से

इस तरह है कि पस-ए-पर्दा कोई साहिर है
जिसने आफ़ाक़ पे फैलाया है यूँ सहर का दाम
दामन-ए-वक़्त से पैवस्त है यूँ दामन-ए-शाम
अब कभी शाम बुझेगी न अँधेरा होगा
अब कभी रात ढलेगी न सवेरा होगा

आस्मां आस लिए है कि ये जादू टूटे
चुप की ज़ंजीर कटे, वक़्त का दामन छूटे
दे कोई शंख दुहाई, कोई पायल बोले
कोई बुत जागे, कोई साँवली घूँघट खोले

"फ़ैज़" की वफ़ा अपने साथ है...  

Posted by richa in ,

ना पूछ जब से तेरा इंतज़ार कितना है
कि जिन दिनों से मुझे तेरा इंतज़ार नहीं
तेरा ही अक्स है उन अजनबी बहारों में
जो तेरे लब, तेरे बाज़ू, तेरा कनार * नहीं

-- फ़ैज़


एक लम्बे वक्फ़े के बाद आज फिर फ़ैज़ की महफ़िल सजाई तो सोचा आज ऐसा क्या पेश करूँ आप सब के सामने जो अब तक पेश नहीं करा. फिर ख़्याल आया जैसा कि कहा जाता है हर कामयाब शख्स और उसकी बुलंद शख्सियत के पीछे एक महिला का हाथ होता है. फ़ैज़ की कामयाबी और उनके तमाम मुश्किल हालातों में जो एक अडिग स्तम्भ की तरह उनके साथ थीं वो महिला उनकी हमसफ़र उनकी पत्नी एलिस फ़ैज़ थीं. तो आइये आज आपको मिलवाते हैं एलिस फ़ैज़ से...

बीबी गुल (फ़ैज़ की बहन) बताती हैं - "फ़ैज़ के लिये बहुत से रिश्ते आये थे मगर जहाँ वालिदा (माँ) और बहनें चाहती थीं वहाँ फ़ैज़ ने शादी नहीं की और एलिस का इंतख़ाब किया. वालिदा ने मशरकी (पूर्वी) रवायत के मुताबिक़ उन्हें दुल्हन बनाया, चीनी ब्रोकेड का ग़रारा था, गोटे किनारी वाला दुपट्टा, जोड़ा सुर्ख़."

एलिस के बारे में वो आगे बताती है - "उनकी बहुत सादा तबियत है, बहुत ख़लीक़ और मोहब्बत करने वाली साबित हुईं और उन्होंने ससुराल में क़दम रखते ही सबका दिल जीत लिया और ख़ानदान में इस तरह घुल मिल गईं जैसे इसी घर की लड़की हैं, वही लिबास इख्तियार किया जो हम सब पहनते थे. हाँ सास और बहू का रिश्ता प्रेम और आदर वाला रहा, सास ने बहू को मोहब्बत दी और बहू ने सास की इज्ज़त की."

हाल ही में एक पुराना साक्षात्कार पढ़ा आजकल पत्रिका के फ़ैज़ जन्मशती विशेषांक में जिसमें "फ़ैज़" से जुड़े कुछ ख़ूबसूरत लम्हों को अमृता प्रीतम से बयां कर रही हैं एलिस फ़ैज़. आप भी पढ़िये -

अमृता : एलिस ! क्या फ़ैज़ साहब से तुम्हारी पहली मुलाक़ात तुम्हारे ही देश इंग्लिस्तान (इंग्लैंड) में हुई थी ?
एलिस : नहीं ! मेरी बहन हिन्दुस्तान ब्याही थी डॉक्टर तासीर के साथ. वे दोनों लंदन में मिले थे, 1938 में मैं अपनी बहन से मिलने हिन्दुस्तान आई थी.

तो हिन्दुस्तान को तुमने "फ़ैज़" के रूप में देखा ?
हाँ, अमृतसर में मिली थी. अमृतसर हिन्दुस्तान बन गया और हिन्दुस्तान "फ़ैज़".

तुम उर्दू ज़ुबान नहीं जानती थीं. फिर "फ़ैज़" की शायरी से इश्क़ कैसे हुआ ?
अमृता ! सच्ची बात तो यह है कि मैं आज तक "फ़ैज़" की शायरी की गहराई को नहीं जान सकी. ज़रा सी ज़बान को समझ लेना और बात है, लेकिन पूरी तहज़ीब को जानना और बात है...

तब "फ़ैज़" शायर को नहीं, "फ़ैज़" एक शख्सियत से प्यार किया था ?
हाँ, वैसे तो शायरी शख्सियत का एक हिस्सा होती है, क्यूँकि एक शायर के साथ ज़िन्दगी बसर करनी होती है, इसलिए भी उसको बहुत कुछ जानना होता है, और मैंने उसे जाना.

मिलने के कितने अरसे बाद शादी की मंज़िल आई ?
तकरीबन दो साल बाद और यह इंतज़ार इसलिए था कि फ़ैज़ के वालिदैन से मंज़ूरी चाहिये थी, क्यूँकि एक ख़ुशगवार माहौल के बग़ैर हम शादी नहीं कर सकते थे...

शादी की रस्म कहाँ अदा की गईं ?
कश्मीर में. महाराजा कश्मीर ने अपना गर्मियों का महल हमें निकाह की रस्म के लिये दिया था और शेख़ अब्दुल्लाह ने निकाह की रस्म अदा की थी.

क्या बारात लाहौर से आई थी ?
हाँ, तीन आदमियों की बारात थी. एक "फ़ैज़", दूसरे उनके बड़े भाई और तीसरे उनके दोस्त नईम... जब तीनों आ गए, तो मैंने फ़ैज़ साहब से पहली बात पूछी... "ब्याह की अंगूठी ले कर आए हो कि नहीं?" "फ़ैज़" ने कहा - "अंगूठी भी लाया हूँ, साड़ी भी."
मैं हैरान हो गई कि अंगूठी का साइज़ "फ़ैज़" ने कहाँ से लिया है. पूछने पर कहने लगे - "मैं अपने साइज़ का ले आया था."
"फ़ैज़" जान गये होंगे कि दिल मिल जाये तो उँगलियाँ भी ज़रूर मिल जाती है.

अच्छा, एलिस ! यह बताओ, निकाह के वक़्त मुशायरा भी हुआ था ?
हाँ, हुआ था. पहले शेख़ अब्दुल्लाह और उनकी बीवी के साथ खाना खाया. फिर मुशायरा हुआ. मजाज़ और जोश मलीहाबादी भी थे.

"फ़ैज़" के रिश्तेदारों से कब मुलाक़ात हुई ?
कश्मीर में तीन दिन ठहरकर हम लाहौर आ गये. वहाँ दावत-ए-वलीमा (विवाह-भोज) की गई.

सास की बुज़ुर्गाना दुआएं कैसे लीं ?
सिर झुकाकर, घूँघट निकल कर...

ईमान से ! सच ! घूँघट उठाने की रस्म भी हुई थी ?
हाँ, अमृता ! चाँदी के रुपयों की सलामी मिली थी.

सास साहिबा ने तुम्हारे नाम नहीं तब्दील किया ?
किया था और उन्होंने मेरा नाम कुलसूम रखा था, लेकिन मुझे पसंद नहीं आया.

उर्दू ज़बान कब सीखी ?
घर में "फ़ैज़" के भतीजे से. मैंने उन्हें अंग्रेज़ी सिखाई और उनसे उर्दू सीखी.

उस वक़्त तक फ़ैज़ का पहला मजमुआ (काव्य-संकलन) नक्श-ए-फ़रियादी छप चुका था ?
हाँ ! शायद एक साल पहले ही छपा था.

"फ़ैज़" ने अपने पहले इश्क़ कि दास्ताँ सुनाई थी, जिसके बारे में नक्श-ए-फ़रियादी में नज़्में लिखी थीं ?
हाँ, अमृता, वह भी और उसके बाद की दोस्तियाँ भी, लेकिन मेरी ज़िन्दगी पर कुछ भी असर-अंदाज़ नहीं होता. "फ़ैज़" एक चट्टान हैं अपने-आप में. "फ़ैज़" की वफ़ा अपने साथ है - काग़ज़ और कलम के साथ.

यह सच है. जिसकी वफ़ा अपने साथ हो, अपने किरदार के साथ हो ,अपनी तख्लीक (सृजन) के साथ हो. उस जैसा वफ़ादार कौन हो सकता है ?
तैंतीस बरस गुज़र गये हमारी शादी को.

पूरब और पश्चिम का यह मिलाप कैसा रहा ?
यह ज़रूर कह सकती हूँ कि दो मुख्तलिफ़, इलहदा-इलहदा सर-ज़मीनों के मर्द और औरत जब शादी करते हैं, तो मेरा ख़्याल है, मर्द के लिये औरत के देश में रहना आसान नहीं, लेकिन औरत अपने मर्द के देश में रह सकती है. नई धरती, नये माहौल को अपनाने की उसमें ताकत होती है. मुख्तलिफ़ तहज़ीब के लोगों की शादी आसान बात नहीं.

तुम्हारे दो बच्चे हैं ?
दो बेटियां सलीमा और मुनीज़ा. सलीमा चित्रकार हैं और मुनीज़ा टी. वी. प्रोड्यूसर ! दोनों ने दो पंजाबी भाइयों के साथ शादी की है. इसलिए इकट्ठी रहती हैं अपनी सास के साथ.

एलिस ! तुमने "फ़ैज़" की नज़्मों का अंग्रेज़ी में तर्जुमा किया होगा ?
नहीं ! और लोगों ने किये हैं. तकरीबन पाँच साल पहले यूनेस्को की तरफ़ से एक तर्जुमा छपा था.

फ़ैज़ साहब को लेनिन पुरस्कार मिला था ?
1962 में. "फ़ैज़" को हार्ट अटैक हुआ था. वह कुछ संभल चुके थे, लेकिन अभी बिस्तर पर थे, जब पाकिस्तान टाइम्स से फ़ोन आया था.

यह ख़बर सुनकर फ़ैज़ साहब के पहले अल्फ़ाज़ (शब्द) क्या थे ?
वह चुप हो गये थे. शायद दिल भर आया था.

लोगों का क्या रवैया था ?
यह कि "फ़ैज़" को यह पुरस्कार नहीं लेना चाहिये, लेकिन अयूब खां का तार आया कि वह प्राइज़ ले सकते हैं. इसी तरह के और तार भी मौसूल (प्राप्त) हुए. फिर दोस्त मुबारकबाद देने आ गये. फिर सवाल आया कि इस हालत में "फ़ैज़" मॉस्को का सफ़र कैसे कर सकते हैं ? डॉक्टर ने हवाई जहाज़ से सफ़र करना मना किया हुआ था. इसलिए बेटी को साथ लेकर "फ़ैज़" ने गाड़ी से लाहौर से कराची तक का सफ़र किया. फिर समुद्री जहाज़ से नेपेल्ज़ तक और फिर नेपेल्ज़ से गाड़ी के ज़रिये मॉस्को तक.

एलिस ! आपने कभी "फ़ैज़" की बायोग्राफी लिखने की सोची है ?
मैं तो नहीं, अलबत्ता कराची में ज़फर-उल-हसन लिख रहे हैं, लेकिन सोचती हूँ, "फ़ैज़" को ख़ुद लिखना चाहिये. एक और काम अधूरा पड़ा है. "फ़ैज़" और सूफ़ी तबस्सुम मिल कर फ़ारसी शायरी का उर्दू तर्जुमा कर रहे थे. सूफ़ी तबस्सुम का इंतक़ाल हो गया, तो "फ़ैज़" बहुत उदास हो गये... यह काम भी करने वाला है और वह काम भी. दोनों काम ज़रूरी हैं.

हाँ, एलिस, और दोनों से बड़ा ज़रूरी काम "फ़ैज़" की ज़िन्दगी को बचाने का है.
हाँ, अल्लाह उनकी हिफाज़त करे.....

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साभार : आजकल हिंदी पत्रिका - फ़ैज़ जन्मशती विशेषांक
उर्दू से अनुवाद : हरपाल कौर
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फ़ैज़ की महफ़िल बिना उनकी ग़ज़लों या नज़्मों के कहाँ पूरी हो सकती है भला, तो आज आप सब के लिये "नक्श-ए-फ़रियादी" से एक बेहद ख़ूबसूरत ग़ज़ल ले कर आये हैं, जिसे अपनी आवाज़ से सजाया है कविता कृष्णमूर्ति जी ने. आप भी सुनिये और आनंद लीजिये.


राज़-ए-उल्फ़त छुपा के देख लिया
दिल बहुत कुछ जला के देख लिया

और क्या देखने को बाक़ी है
आप से दिल लगा के देख लिया

वो मेरे हो के भी मेरे ना हुए
उनको अपना बना के देख लिया

आज उनकी नज़र में कुछ हमने
सबकी नज़रें बचा के देख लिया

आस उस दर से टूटती ही नहीं
जा के देखा, न जा के देख लिया

'फ़ैज़', तक़मील-ए-ग़म * भी हो ना सकी
इश्क़ को आज़मा के देख लिया



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