आज तुम याद बेहिसाब आये...  

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यादों के ख़ाशाक * में जागे
शौक़ के अंगारों का जादू
शायद पल-भर को लौट आये
उम्र-ए-गुज़िश्ता *, वस्ल-ए-मन-ओ-तू*
-- फ़ैज़


फ़ैज़ के चाहने वालों के लिये आज का दिन बड़ा ख़ास है. सदी का ये शायर आज पूरे सौ साल का हो गया. पूरी दुनिया आज फ़ैज़ की जन्मशती मना रही है और तह-ए-दिल से सदी के इस सबसे सशक्त शायर को अपनी श्रद्धांजलि दे रही है. कहते हैं कला कि कोई सीमा नहीं होती. फ़ैज़ और उनकी शायरी के प्रति लोगों का प्यार इसे पूर्णतयः सही साबित करता आया है हमेशा से ही. फ़ैज़ के चाहने वाले सिर्फ़ भारत और पाकिस्तान में ही नहीं हैं बल्कि पूरी दुनिया में मौजूद हैं. समूचे विश्व के संदर्भ में देखा जाये तो फ़ैज़ के लेखन को वही इज्ज़त और मुकाम हासिल हैं जो शेक्सपियर, टॉल्सटॉय या टैगोर को हासिल है.

आज से ठीक सौ साल पहले १३ फरवरी १९११ को फ़ैज़ ने सियालकोट के कस्बे काला क़ादिर में जन्म लिया था. काला और क़ादिर नाम के दो भाइयों ने इस कस्बे को बसाया था पर आज यहाँ के रहने वालों ने "फ़ैज़" के नाम पर इसका नाम फ़ैज़ नगर रख दिया है. है कोई और कवि फ़ैज़ के सिवा जिसे आवाम का इतना प्यार मिला हो.

फ़ैज़ की शायरी शब्दों के संगीत को साकार कर देती है. फ़ैज़ के लेखन को इस उपमहाद्वीप के तमाम नामी-गिरामी गायक और गायिकाओं ने अपूर्व सौंदर्य के साथ गाया है. बेग़म अख्तर, नूरजहाँ, मेहदी हसन, इकबाल बानों, फरीदा ख़ानम, टीना सानी, नय्यारा नूर आदि ने फ़ैज़ की शायरी को बड़े ही बेहतरीन तरीके से गाया और प्रस्तुत किया है. ग़ालिब जैसे महान शायर को छोड़ कर बीसवीं सदी के किसी भी और शायर को इतनी बड़ी प्रतिभाएं इतनी बड़ी संख्या में नहीं मिलीं.

कवि, पत्रकार, अनुवादक, फिल्मकार, प्रसारणकर्ता, मार्क्सवादी कार्यकर्ता और लेनिन शान्ति पुरस्कार से सम्मानित "फ़ैज़" अपने जीवनकाल में ही एक इतिहास बन चुक थे. एक बार भारत में "फ़ैज़" कि एक यात्रा के दुरान फ़िराक गोरखपुरी ने कहा था - "फ़ैज़ के समय में भारतवासी कहलाना कितने सौभाग्य की बात थी." यह एक दुर्लभ श्रद्धांजलि है जो एक महान शायर ने दूसरे महान शायर को दी थी. "फ़ैज़" हमारे मध्य हैं और हमेशा रहेंगे.

आज आपने लिये फ़ैज़ की एक बेहद मशहूर ग़ज़ल "आये कुछ अब्र कुछ शराब आये" ले कर आयी हूँ, जिसे अपनी मखमली आवाज़ से नवाज़ा है सुप्रसिद्ध ग़ज़ल गायक मेहदी हसन साहब ने. ये ग़ज़ल फ़ैज़ के दूसरे मजमुए "दस्त-ए-सबा" से ली गई है. तो आइये एक बार फिर सराबोर होते हैं फ़ैज़ कि शायरी के नशे में और जश्न मनाते हैं आज के दिन का. फ़ैज़ के सभी मुरीदों को आज का दिन बहुत बहुत मुबारक़ हो.

आए कुछ अब्र, कुछ शराब आये
उस के बाद आए जो अज़ाब * आये

बाम-ए-मीना * से माहताब * उतरे
दस्त-ए-साक़ी * में आफ़ताब * आये

हर रग-ए-ख़ूँ में फिर चराग़ाँ हो
सामने फिर वो बेनक़ाब आये

उम्र के हर वरक़ पे दिल को नज़र
तेरी मेहर-ओ-वफ़ा * के बाब * आये

कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब
आज तुम याद बे-हिसाब आये

न गई तेरे ग़म की सरदारी
दिल में यूँ रोज़ इन्क़लाब आये

जल उठे बज़्म-ए-ग़ैर के दर-ओ-बाम
जब भी हम ख़ानमाँ-ख़राब * आये

इस तरह अपनी ख़ामोशी गूँजी
गोया हर सिम्त से जवाब आये

'फ़ैज़' थी राह सर-ब-सर मंज़िल
हम जहाँ पहुँचे कामयाब आये



फ़ैज़ की शायरी हमें ख़ुशी भी देती है, हैरानी भी...  

Posted by richa in


फ़ैज़ जन्मशती के अवसर पर प्रसिद्ध शायर शहरयार से प्रेमकुमार द्वारा की गई बातचीत की एक बानगी -

"वो लोग बहुत ख़ुशकिस्मत थे जो इश्क़ को काम समझते थे या जो काम से आशिक़ी करते थे." चेहरे पर एकदम अलग-सी ख़ुशी और तृप्ति. होंठों पर सुनाते जाने की बेचैन, उतावली सी एक चाहत - "हम जीते जी मसरूफ़ रहे कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया." कई बार दोहराया है इन पंक्तियों को. कुछ इस तरह जैसे आगे का हिस्सा याद ना आ रहा हो. पास रखी भारी-भरकम सी एक किताब उठाकर उसके पन्नों को उलटा-पलटा जा रहा है - "काम इश्क़ के आड़े आता रहा और इश्क़ से काम उलझता रहा. फिर आख़िर तंग आकर हमने दोनों को अधूरा छोड़ दिया." आँखों में दाद देती-सी दिपदिपाती एक चमक ! मुझपर हुए असर को देखने-जानने को आतुर-प्रतीक्षित-सी उनकी निगाहें. आज के उनके इस सुनाने के आवेश-उल्लास ने मुझे चौंकाया. इस जोश और जज़्बे के साथ तो शहरयार साहब अपने क़रीबियों से एकांत और फ़ुर्सत में भी अपनी ताज़ी-से-ताज़ी, अच्छी-से-अच्छी रचना को सुनने के लिये प्रायः नहीं कहते. कभी घर पर फ़ोन पर सुनाने का मन भी हुआ तो बेहद शान्त, शीतल, सहज अंदाज़ में.

कुछ भी पसंद आने की कोई ना कोई ख़ास वजह तो होती ही है न ?

- "देखिये - हम जिस ज़माने में जी रहे हैं वो इश्क़ करने को कोई काम नहीं समझता. आप शायरी करते हैं तो हर आदमी पूछता है कि आप काम क्या करते हैं. गोया शायरी करना कोई काम ही नहीं है. हाँ - ऐसे ही कोई बेकार चीज़ है वो जिसका जीने से ताल्लुक नहीं या शायरी जीने का ज़रिया ही नहीं हो सकती. इस सवाल पर हमारी कल्चर्ड सोसाइटी कभी ग़ौर नहीं करती. आप पेंटर से, टेबल या सारंगी वाले से ये नहीं पूछते - पर राइटर से हमेशा ये सवाल किया जाता है कि आप काम क्या करते हैं. पता नहीं हमारे समाज में यह पूछना कब से चला आ रहा है. कोई ग़ौर नहीं करता कि ये कितना एब्सर्ड सवाल है. आप देखिये कि नक्क़ाद से नहीं पूछेंगे कि आप क्या काम करते हैं पर एक क्रिएटिव राइटर से हरेक यही सवाल करता है. जी - हर कोई - चाहे उसका बाप हो या बेटा हो !"

यह तो है - पर मैं इस नज़्म की... ?

मेरा इतना भी बोलना जैसे उन्हें खटका था. झांई-सी मरती पल-दो-पल की एक रुकावट आयी. उनकी निगाह ने मेरी आँखों में झाँकते-से जैसे कुछ जांचा-परखा. और अगले ही पल तक वो एक अध्यापक हो गये थे - "जी मैं इसी नज़्म के हवाले से बात कर रहा हूँ. "फैज़" की ये नज़्म - कि इश्क़ भी एक काम है - और यही नहीं कि इश्क़ अपोज़िट सेक्स से ही हो ! किसी भी चीज़ को हासिल करने या उसके हुस्न, खूबसूरती में आदमी का इतना खो जाना कि उसे सुध-बुध न रहे - दीवानों-पागलों की तरह का आदमी का चाहना- इश्क़ है. यह किसी आइडियल से, औरत, मुल्क़ या राइटर से - किसी से भी हो सकता है. जिसको पाने के लिये आदमी काम को भी फायदे नुक्सान को सोचकर न करे - अपनी पसंद का है इसलिए इसलिए पूरा दिल लगाकर करे उसे. आप किसी के सामने अकाउंटबल हों या न हों - अपने सामने ज़रूर हों. अपने सामने अकाउंटबल तब होता है इन्सान जब अपने कॉन्शस को फेस करता है. फेस करने के दौरान जब वह पूछता है कि मुझे जिस काम पर मुक़र्रर किया गया है - टीचर, सैनिक, सिपाही, मिनिस्टर या और जो भी - तो मैंने जो वह काम किया या कर्त्तव्य किया - वह पूरे मन से किया या नहीं. अगर जवाब 'हाँ' में मिलता है तो वो अपनी नज़र से गिरता नहीं है."

"ख़लीलुर्रहमान आज़मी का एक शेर है - 'अपना मुशाहिदा नहीं करता स्याह रूह. वो देखे आईना कि जो रौशन ज़मीर हो...' इसीलिए तो - ज़मीर जिसका पाक़-साफ़ हो उसे आईना देखने में डर नहीं लगता...."

जी - दरअसल बात इस नज़्म की ख़ासियत की... ?

"ख़ासियत - यही की यह जो हमारा दौर है, उसमे इश्क़ करना भूल गये हैं हम. फ़ारसी का एक शेर है - बड़ा मशहूर है. पूरा याद नहीं - पर ये है की दमिश्क में जब क़हर पड़ा तो लोग इश्क़ करना भूल गये. हम लोग जिस ज़माने में ज़िन्दा हैं इसमें लोग इश्क़ करना भूल गये हैं. मुहब्बत जो है, वो भी एक कारोबार बन गई है. अपना एक शेर याद आ रहा है - 'पहले था -' शेर से पहले लम्बी-गहरी साँस की उस आवाज़ ने कह दिया कि मैं अन्दर कहीं बहुत गहरे से आ रही हूँ - "पहले था जो भी आज मगर कारोबार-ए-इश्क़ / दुनिया के कारोबार से मिलता हुआ सा है"

लेकिन यह इश्क़ या काम का फ़लसफ़ा - और "फ़ैज़" या उनकी वह विचारधारा ?

"दरअसल 'फ़ैज़' का जो नज़रिया था - मर्क्सिज़म का - उन्होंने उसको वो दर्जा दे रखा था जो ज़िन्दगी में माशूक को हासिल होता है. बड़ा मशहूर शेर है उनका - आपने ज़रूर सुना होगा - 'गर बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है जो चाहे लगा दो डर कैसा. गर जीत गए तो क्या कहना हारे भी तो बाज़ी मात नहीं.' बड़ी ख़ूबसूरत ग़ज़ल है यह 'फ़ैज़' की. गदगद कंठ. पलक बन्द. बिलकुल जैसे कोई गीतकार अपने में खोया हुआ - डूबा-सा अपना कोई बहुत प्रिय गीत अपने किसी अज़ीज़-करीबी को सुना रहा हो - 'कब याद में तेरा साथ नहीं, कब हाथ में तेरा हाथ नहीं. सद शुक्र कि अपनी रातों में अब हिज्र कि कोई रात नहीं.' पलकों के खुलते ही कलाइयों और उँगलियों ने चलना-घूमना शुरू कर दिया है. किसी काव्यांश कि व्याख्या करते अध्यापक की तरह तफ़सील से बताया जा रहा है - "अब दूरी कैसी ! हर वक़्त तेरी याद. जब हर वक़्त तेरा हाथ मेरे हाथ में रहता है तो..."

इन हिस्सों को आज आपसे सुन रहा हूँ तो कई तरह से अलग-सा असर हो रहा है 'फ़ैज़' के अंदाज़ और उनके एक-एक शब्द का...

"यही तो है ! 'फ़ैज़' बड़े शायरों की तरह उन शायरों में हैं जो अपने इस्तेमाल किये हुए लफ़्जों पर ऐसी मोहर लगाते हैं कि वो लफ़्ज़ सिर्फ़ उनसे मख़सूस हो जाते हैं. जैसे पेटेंट करा देते हैं न ! ट्रेडमार्क बन जाते हैं न जैसे. तो ग़ालिब के बाद मुख्तलिफ़ राइटर्स ने बड़ी तादाद में अपनी कहानियों के टाइटिल्स, किताबों के नाम उनके बनाए हुए मुक्केबाज़ - हाँ, जुड़-मिलकर बने शब्दों - जी, शायद यही जिन्हें आप सामासिक शब्द कह रहे हैं - तो मुक्केबाज़ पर रखे हैं. जी, जैसे क़ाज़ी अब्दुल सत्तार का उपन्यास है न - शब गज़ीदा. और हाँ - 'सफ़ीन-ए-ग़म-ए-दिल' है जैसे कुर्तुलुन का. उन्हीं का 'आख़िर शब के हमसफ़र' है. आप जानते हैं कि यह जो लफ़्ज़ है सहर - वैसे तो सुबह के अर्थ में आता है - पर तरक्कीपसंदों - ख़ासतौर से 'फ़ैज़' के इस्तेमाल से यह किसी चीज़ के पॉज़ीटिव रिज़ल्ट के अर्थ में प्रचलित हुआ और वैसे ही रात निगेटिव के. इससे पहले सहर या रात सिर्फ़ टाइम को ज़ाहिर करते थे."

आपकी तो मुलाक़ातें भी हुई हैं 'फ़ैज़' से ?

"हाँ, हाँ, मेरी उनसे बाराहा मुलाक़ात हुई. बहुत ही निजी तरह की महफिलें. उन मुलाक़ातों में कभी हिन्दुस्तान-पाकिस्तान कि समस्याओं या रिश्तों वगैरह पर बातें नहीं हुआ करती थीं. वो यहाँ या वहाँ के मिसायलों के बारे में कभी गुफ़्तगू नहीं किया करते थे. वे कहते थे कि हम तो भाई मुहब्बत के सफ़ीर हैं और इसके अलावा कुछ सोचते नहीं. उनकी पूरी शायरी में भी कोई ऐसी फीलिंग नहीं है जिसमें नफ़रत, जंग कि हिमायत, दूरी फैलाने या फ़ासला पैदा करने वाला कुछ हो. ऐसा कुछ दूर दूर तक वहाँ नहीं है. बांग्लादेश बनने पर उन्होंने जो नज़्म लिखी थी, उसमें भी बहुत उदासी थी. सोचते थे कि जो हुआ बहुत तकलीफ़देह हुआ. वो सब नहीं होना चाहिये था. पर जो हुआ - उनकी नज़र में उसके कॉज़िज़ मौजूद थे. एक आम पाकिस्तानी नेशनलिस्ट कि हैसियत से वो दुखी थे. मसलन वो लाइन है उनकी - 'खून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद.' 'फ़ैज़' यहाँ के कई शायरों को पढ़ते, पसंद करते और मान देते थे. आम पाकिस्तानियों के बरक्स उन्होंने मख़दूम, जज़्बी, जाफ़री और मजाज़ को शुरू की अपनी एक किताब डेडीकेट की थी. डेडीकेट करते समय इन चार शायरों में से दो को दस्त-ओ-बाजू और दो को उन्होंने क़ल्ब-ओ-जिग़र लिखा था."

यह भी तो है कि उनके लेखन में कई बार सन सैंतालीस में मिली उस आज़ादी को लेकर नाख़ुशी और असंतोष का इज़हार हुआ है. जैसा वो जो उनकी नज़्म है - "ये दाग़-दाग़ उजाला...! "

बाएँ हाथ ने बढ़कर 'फ़ैज़' के उस संग्रह को हाथ में थाम लिया है. पृष्ठों के उलटने-पलटने के साथ-साथ जोशीले लहज़े में कहना शुरू हुआ है - "जी - उए पार्टीशन पर लिखी थी, बहुत मशहूर हुई." सुनाना शुरू हो चुका है. साथ ही किताब में उसकी तलाश भी जारी है -


ये दाग़ दाग़ उजाला, ये शब गज़ीदा सहर
वो इन्तज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं
ये वो सहर तो नहीं जिस की आरज़ू लेकर
चले थे यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं
फ़लक के दश्त में तारों की आख़री मंज़िल
कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त मौज का साहिल
कहीं तो जा के रुकेगा सफीना-ए-ग़म-ए-दिल

नज़्म तलाश ली गई. गुनगुनाते-से उसे फिर से पढ़ा जा रहा है अपनी एक ख़ास धुन में - आखिरी लाइनें हैं -

अभी गरानि-ए-शब में कमी नहीं आई
निज़ात-ए-दीद-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई

नज़्म ख़त्म हुई तो उनका जो हाथ किताब को मेज़ से उठाकर लाया था, जल्दी से उसे वहीं वापस पहुँचाने के लिये चल दिया. आख़िरी पंक्ति दो-तीन बार बाआवाज़ पढ़ी गई है. कहीं दूर देखते-सोचते से कह रहे हैं - हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी सब इस बात पर ख़ुश थे कि चलो अंग्रेज़ों से छुटकारा मिला - मगर 'फ़ैज़' दुखी थे कि ये आज़ादी उनके ख़्वाबों की आज़ादी नहीं थी. पार्टीशन में इंसानियत का जैसे खून हुआ - जैसे वो बंटवारा हुआ - उसने बहुत तकलीफ़ पहुँचाई थी उन्हें. वे पाकिस्तान में रहते थे - तो ज़ाहिर है कि उस हक़ीक़त को कुबूल कर लिया था - पर अन्दर से ख़ुश नहीं थे."

आँखें बन्द कर के याद करने कि कोशिश कि है कुछ देर. याद आने में मुश्किल दिखी तो किताब फिर हाथ में आ गई - "हाँ, ये है वो मुक्तक - 'दीद-ए-दर पे वहाँ कौन नज़र करता है/ कासा-ए-चश्म में खूनाबे जिग़र ले के चलो/ अब अगर आओ पर अर्ज़ो तलब उनके हुज़ूर/ दस्त-ओ-कशकोल नहीं कासा-ए-सर ले के चलो' आज 'फ़ैज़' पर सौ साला जश्न पूरी दुनिया में हो रहा है उसमें हिन्दुस्तान भी पीछे नहीं है. साहित्य अकादमी और बहुत-से इदारे और अन्जुमनें बड़े पैमाने पर उनका प्रोग्राम कर रहे हैं. ख़ुद यहाँ अलीगढ़ में - यूनिवर्सिटी में जनवरी में एक बड़ा जलसा हो रहा है जिसमे हिन्दुस्तान से बाहर के बहुत लोग आने वाले हैं - और 'फ़ैज़' कि बेटी सलीमा भी आ रही हैं उसमें."

उनकी अभिव्यक्ति कि रग-रग में से, रेशे-रेशे में से नया अनोखा सा एक आदर भाव झलक रहा था. आदर का ऐसा भाव जो अपने पूर्वजों-वंशजों की श्रेष्ठताओं-ऊँचाइयों को याद करते समय हमें अनायास-अप्रयास श्रद्धा से भर जाता है - गर्वित - आलोकित कर जाता है. मेरे सामने अभी हाल ही में ही ज्ञानपीठ पुरस्कार से पुरस्कृत हुआ एक शायर था - और 'फ़ैज़' की शायरी के बारे में उसके अनुभव और राय से परिचित कराने वाली वो सहज, बेबाक प्रतिक्रियाएं थीं. तब वह शायर अपनी शायरी की खासियतें बताने-गिनाने कि धुन या ज़िद में नहीं था. लग ही नहीं रहा था कि उस शायर को अपने ख़ुद के शायर होने का कोई बोध उन क्षणों में 'फ़ैज़' कि शायरी के मूल्यांकन में ज़रा-सी बाधा पहुँचा रहा है या कोई मुश्किल खड़ी कर रहा है. जैसे तब शहरयार साहब केवल एक सहृदय भर थे, सुबुद्ध एक पाठक या श्रोता भर थे, बहुज्ञ एक बुद्धिजीवी मात्र थे या फिर साहित्य कि दुनिया में खूब पैरे-तैरे, डूबे-उतराए एक तठस्थ-ईमानदार समीक्षक हो चले थे. शब्द-शब्द बता रहा था कि मैं बहुत अन्दर से आ रहा हूँ और जो कह रहा हूँ मन से - पूरे मन से कह रहा हूँ. जी किया कि 'फ़ैज़' की शायरी की बड़ाई-ऊंचाई-गहराई को शहरयार साहब के दिल और आँखों से भापूँ-देखूँ - "क्या कुछ होता है वह जिसके होते कोई शायर या उसकी शायरी - हाँ, 'फ़ैज़' और उनकी शायरी भी - बड़ी हो जाती है - बड़ी मान ली जाती है ?"

दो-चार पल भी तो नहीं गुज़रे थे कि सुनाई पड़ा - "मेरा एक तसव्वुर है कि वो शायर या राइटर अहम और बड़ा है जिसको बार-बार पढ़ने को जी चाहे. हर बार जब आप पढ़ें तो वो बिलकुल नया मालूम हो और ऐसा लगे कि पहले जब हम इस अदीब के पास आये थे तो हम उसकी बहुत-सी खूबियों, बहुत-से पहलुओं को देख नहीं पाए थे - और एक नई ख़ुशी और हैरत ले कर वापस लौटें. ये सिलसिला बराबर चलता रहे और हर विज़िट में हमें यही अनुभव हो. इस ऐतबार से आप 'फ़ैज़' की शायरी को देखिये. 'फ़ैज़' कि शायरी में मुझे ग़ालिब जैसी बड़ाई नज़र आती है."

ग़ालिब जैसी... ?

"जी - ग़ालिब जैसी. यूँ और भी ऐसे बड़े शायर हैं जिनकी तरफ़ हम बार-बार जाते हैं, लेकिन बाज़ बाहरी चीज़ों कि वजह से हमारे अन्दर उनके सिलसिले में एक ख़ास ज़ेहन बन जाता है. आमतौर से हम उन्हीं चीज़ों को उनके यहाँ ढूंढने जाते हैं और वही चीज़ें हमें मिलती हैं बार-बार. उनका रौब तो हम पर पड़ता है और रिस्पेक्ट में हमारे सर झुक जाते हैं - लेकिन ख़ुशी और हैरत नहीं मिलती हमें. इसकी एक बहुत बड़ी मिसाल उर्दू में इक़बाल हैं - जिनके बड़े होने में कोई शुबह नहीं - लेकिन वो हमें उस तरह ख़ुश और हैरान नहीं करते जिस तरह ग़ालिब और 'फ़ैज़' हमें करते हैं. आपने पूछा है न - तो 'फ़ैज़ और ग़ालिब - दोनों कि एक ख़ूबी ये भी है कि इनके स्टाइल और रंग पर इनकी इतनी गहरी छाप है कि अगर उनके रंग में कोई लिखने की कोशिश करे तो फ़ौरन पकड़ा जाता है - और दूर से मालूम हो जाता है कि ये फ़ैज़ का या ये ग़ालिब का शेर है. इसको यूँ भी कहा जा सकता है कि उन्होंने अपने स्टाइल को बिलकुल इग्ज़ॉस्ट कर दिया है. उससे कोई दूसरा कुछ नहीं ले सकता है. उस ज़मीन में जितनी फसल पैदा हो सकती थी, उन्होंने उगा ली - काट ली. उनके स्टाइल का जादू इतना चला कि उनके कई कन्टेम्परेरीज़ - हम उम्र या साथ के जो लोग थे - उन्होंने उनकी तरह की चीज़ें लिखने की कोशिश कीं. - जी - मसलन सरदार जाफ़री... "

'फ़ैज़' की प्रसिद्धि के पीछे जितनी जैसी भी हो क्या एक वजह उनकी शायरी में उपस्थित राजनीति के हिज्जे-हिस्से भी हैं ?

"जहाँ तक मक़बूलियत का सवाल है - तो वो ख़ास-ओ-आम में जितने मकबूल हैं, उसकी वजह ये भी है कि वो जेल गये और मार्किस्ट रहे. उनका जेल जाना या लम्बे अरसे तक जेल में रहना और मार्किस्ट होना उनके लिये बहुत फायदेमंद रहा. और जहाँ तक सियासी एलिमेंट कि बात है तो वो उनके यहाँ बहुत रूमानी और इश्क़िया अंदाज़ में आया. कई जगह तो उनका इंक़लाब गोश्त और पोस्त का इन्सान मालूम होता है." बोलना रुका तो देखा कि किताब हाथ में आ चुकी है और उलट-पुलट शुरू हो चुकी है - मसलन ये शेर देखिये -


कब ठहरेगा दर्द-ए-दिल, कब रात बसर होगी
सुनते थे वो आयेंगे, सुनते थे सहर होगी
कब जान लहू होगी, कब अश्क गुहर होगा
किस दिन तेरी शुनवाई, ऐ दीद-ए-तर होगी

इस जल्दी और चाहत के साथ निकला यह वाक्य कि जैसे कोई शायर अपनी एकदम ताज़ा लिखी रचनाओं में से अधिकाधिक को अपने पास आये अपने किसी साथी-करीबी को सुना देना चाह रहा हो -


आ गई फ़स्ल-ए-सुकूँ चाक़ गरेबाँ वालों
सिल गये होंठ, कोई ज़ख्म सिले या न सिले
दोस्तों बज़्म सजाओ के बहार आयी है
खिल गये ज़ख्म, कोई फूल या न खिले

या उनका ये शेर देखिये -


तेरे ग़म को जाँ की तलाश थी तेरे जाँ-निसार चले गये
तेरी राह में करते थे सर तलब सर-ए-राह-गुज़ार चले गये

न रहा जुनूँ-ए-रुख़-ए-वफ़ा ये रसन ये दार करोगे क्या
जिन्हेँ जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था वो गुनाहगार चले गये

पता नहीं, अब वो सुनाने के लिये पढ़ रहे हैं या पढ़ने के लिये सुना रहे हैं. पर जो भी चल रहा है, वह बदस्तूर जारी है - "इन शेरों से साफ़ पता चलता है कि इंक़लाब उनके लिये एक रूमान था." उंगलियाँ रुकीं तो सफात कि उलट-पुलट थमी. निगाह के उस पन्ने पर टिकते ही आवाज़ में फड़कती-चहकती-सी एक ख़ुशी सुनाई दी - "अच्छा- आख़िर में उनकी एक नज़्म... "मैंने दोबारा ध्यान से देर तक देखा - शहरयार साहब के हाथों में अपनी कोई डायरी या अपना कोई संकलन नहीं था. वही किताब थी जिसे बीच-बीच में कई बार 'फ़ैज़' की बताया गया था. तो दूसरे किसी कवि कि कविता को सुनाने की शहरयार साहब की ऐसी यह आतुरी, उत्सुकता, उमंग और छटपटाती-सी चाहत और जो भी हो पर यह ज़रूर है कि वह नज़्म ऐसी-वैसी कोई साधारण-कमज़ोर नज़्म तो नहीं ही होगी, जिसने शहरयार साहब को इतनी मज़बूती से अपनी गिरफ़्त में लिया हुआ है.... ! जी - नज़्म यूँ शुरू होती है -


तुम्हीं कहो क्या करना है
जब दुःख की नदिया में हमने
जीवन की नाव डाली थी
था कितना कस-बल बाहों में
लोहू में कितनी लाली थी
यूँ लगता था दो हाथ लगे
और नाव पूरम्पार लगी
ऐसा ना हुआ, हर धारे में
कुछ अनदेखी मझधारें थीं
कुछ माँझी थे अनजान बहुत
कुछ बेपरखी पतवारें थीं
अब जो भी चाहो छान करो
अब जितना चाहो दोष धरो
नदिया तो वही है नाव वही
अब तुम ही कहो क्या करना है
अब कैसे पार उतरना है

जब नज़्म को सुनाना शुरू किया था तो मन एकदम अनमना-सा था. बस, ऐसा-सा कि शहरयार साहब के उस मन को रखना था - उनके उस भाव कि इज्ज़त करनी थी. पर यहाँ तक आते-आते लगा कि कविता के सम्मोहन ने मुझे अपने घेरे-फंदे में खींच-जकड़ लिया है. शहरयार साहब से ऐसा कुछ पूछने का भी मन हुआ कि क्या इस नज़्म को इतनी इस दिलीचाहत, ख़ुशी और हैरानी के साथ आपसे सुनने का सौभाग्य किसी और को भी मिला है - पर नहीं - इस कारण अगर एक भी शब्द अनसुना रह गया तो मिल रहे इस आनंद में ख़लल भी तो पड़ सकता है न ! इस नज़्म से अपने प्रथम परिचय के उन अनमोल क्षणों में मैं ख़ुद को हैरान करती-सी उस ख़ुशी से लेशमात्र भी वंचित नहीं होने देना चाह रहा था. वो थे कि नज़्म में बेजिस्म सर-ओ-पा बहुत गहरे उतरे-रुके से बोले जा रहे थे -


अब अपनी छाती में हमने
इस देश के घाव देखे थे
था वैदों पर विश्वास बहुत
और याद बहुत से नुस्ख़े थे
यूँ लगता था बस कुछ दिन में
सारी बिपता कट जायेगी
और सब घाव भर जायेंगे
ऐसा ना हुआ के रोग अपने
तो सदियों ढेर पुराने थे
वैद इनकी तह को पा न सके
और टोटके सब नाकाम गये
अब जो भी चाहो छान करो
अब जितना चाहो दोष धरो
छाती तो वही है घाव वही
अब तुम ही कहो क्या करना है
ये घाव कैसे भरना है

कुछ तो हुआ ही था कि मैं कुछ ऐसे वाह-वाह कर उठा था जैसे मुझे शहरयार साहब नहीं ख़ुद 'फ़ैज़' ही अपनी नज़्म सुना रहे हों ! इस ख़्याल के आते ही याद आया कि हाँ - बहुत लोग कहते हैं कि शहरयार भी तो 'फ़ैज़' कि तरह ही पढ़ते हैं. शहरयार कई बार बता चुके हैं कि 'फ़ैज़' अपनी ग़ज़लें और अपनी नज़्में अच्छी तरह नहीं पढ़ पाते थे. तो - इसका मतलब - ! मेरी आँखों में से झाँकते चकित-से उस आह्लाद को शहरयार की निगाहों में शायद भांप-जान लिया है - "नहीं - इस तरह की नज़्में उनके पास बहुत कम हैं उनके डिक्शन पर सजावट और आराइश का बहुत असर है. इसलिए फ़ारसी, आमेज़ ज़बान उनकी नज़्मों में बहुत नज़र आती है. अलबत्ता ग़ज़लें निस्बतन सहज ज़बान में हैं और वो सहज इसलिए भी लगने लगी हैं कि बहुत गायी गई हैं. बार-बार सुनने से कान उससे मानूस हो गये हैं. तो वो बहुत आसान लगने लगी हैं..."

यह बिना वजह तो नहीं ही होगा कि इस समय मुझे नज़ीर याद आ रहे हैं ! आपको कुछ ऐसा लगता है कि नज़ीर और 'फ़ैज़'... ?

"नहीं 'फ़ैज़' से नज़ीर कि तुलना तो ठीक नहीं है. जहाँ तक नज़ीर का सवाल है उन्होंने बहुत आवामी ज़बान इस्तेमाल की. इसलिए कि जो उनका कंटेंट था वो भी आम आदमी कि प्रॉब्लम्स से - ज़िन्दगी से लिया गया था. और उर्दू का जो आम स्टाइल था, उससे वो बहुत अलग था. इसलिए बहुत दिनों तक उर्दू वालों ने उन्हें शायरी में वो ख़ास दर्जा नहीं दिया जो उनको बीसवीं सदी में मिला. ख़ासतौर से तब जब प्रोग्रेसिव मूवमेंट का दौर चला. जब आम आदमी को अदब में जगह मिली तो नज़ीर को भी अदब में जगह मिल गई. जबकि बहुत से लोग उनको बड़े शायरों में शुमार नहीं करते. जी - 'फ़ैज़' से कँपेरिज़न इसलिए ठीक नहीं कि 'फ़ैज़' उर्दू की आम ट्रेडिशन से जुड़े हैं. उससे - वो जो आम चलन था - वो जो सॉफ्स्टिकेटेड लैंग्वेज होती है जिसमे तसन्नो-तकल्लुफ और सजावट का एलिमेंट ज़्यादा है.

यहाँ यह एक और बात हमें ध्यान में रखनी चाहिये कि वो शायर और राइटर - जिनकी मादरी ज़बान उर्दू नहीं थी - उनके जो अदबी क्रिएशंस हैं - उनकी ज़बान एक ख़ास तरह की बोलचाल कि ज़बान से थोड़ी दूर ही रहती है. जी - जैसे एक्वायर्ड लैंग्वेज होती है ना ! 'फ़ैज़' की मादरी ज़बान पंजाबी थी. पंजाबी में - ज़्यादा नहीं - मगर उन्होंने शायरी भी की है."

ऐसे और भी तो शायर हैं कई ?

"हाँ - राशिद हैं ! यासिर काज़मी, इब्ने इंशा - बहुत लोग हैं. कृष्ण चंदर, बेदी, मंटो हैं. इनमे किसी की मादरी ज़बान उर्दू नहीं थी. इसलिए इनकी ज़बान थोड़ी अलग होती है. इसका एक फायदा इन लोगों को ये हुआ कि इन लोगों ने उर्दू वाले इलाके के अदीबों के मुकाबले में ज़्यादा मेहनत की और ज़्यादा पढ़ा. इसलिए इनके यहाँ निस्बतन औरों के मुकाबले डेप्थ ज़्यादा है. जी - मजाज़, सरदार जाफ़री, जाँ निसार अख्तर आदि के मुकाबले में आप ये देख सकते हैं."

देशों-भाषाओं की बंदिशों-सीमाओं से परे और पार - 'फ़ैज़' को यह जो महत्त्व, मुक़ाम और मान हासिल है - उसे लेकर कैसे और क्या सोचते हैं आप ?

"साफ़ है कि 'फ़ैज़' बड़े शायर हैं. इसलिए बड़े शायर हैं कि इनका डिक्शन भी अलग है और क्वालिटी व क्वान्टिटी - दोनों के ऐतबार से बड़ाई का एलिमेंट 'फ़ैज़' के यहाँ बहुत ज़्यादा है."

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साभार : आजकल हिंदी पत्रिका - फ़ैज़ जन्मशती विशेषांक

मेरे दिल, मेरे मुसाफ़िर...  

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हम अपने वक़्त में गुज़रे जहान-ए-गुज़राँ * से
नज़र में रात लिये दिल में आफ़ताब * लिये
हम अपने वक़्त पे पहुँचे हुज़ूर-ए-यज़्दाँ * में
ज़बाँ पे हम्द * लिये हाथ में शराब लिये
-- फ़ैज़


परिस्थितियाँ कभी भी "फ़ैज़" के अनुकूल नहीं रही. उनका जीवन सदैव दुविधाओं में घिरा रहा. यद्यपि उनका कार्यक्षेत्र बहुत विस्तृत था तथापि अपने देश से बेगानेपन का भाव हमेशा बना रहा. उनकी सरकार ने उनके प्रति कभी सौहार्द-भाव नहीं दिखाया. उनकी किताबें ज़ब्त कर ली गई और उन पर निरंतर नज़रबंदी का पहरा लगाए रखा. शारीरिक यातनाएँ उन्हें इसलिए नहीं दी गयीं की देश की जनता उन्हें सिर-आँखों पर बैठाए रखती थी और उनकी शायरी की दीवानी थी. कुछ वर्ष पूर्व लाहौर में घटी एक घटना का ज़िक्र एक बार "फ़ैज़" ने मुझसे किया था - विश्वविद्यालय के सभाकक्ष में संगीत के एक आयोजन में अन्य गायकों के साथ प्रसिद्ध गायिका नूरजहाँ को भी बुलाया गया था, जब वह मंच पर गाने के लिये आईं तो उन्होंने "फैज़" की मशहूर नज़्म गाना शुरू किया - "मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग". सभाकक्ष में सन्नाटा छा गया. शासन के अनेक उच्च अधिकारी भी वहाँ पर उपस्थित थे. यह गीत सुनते ही उनमें खुसर-फुसर आरम्भ हो गई. संयोजक ने मंच पर आकर नूरजहाँ के कान में फुसफुसाकर कहा कि वह कोई दूसरा गीत गायें. उस निडर महिला ने आदेश मानने से इनकार कर दिया और श्रोताओं को सुनाते हुए कहा - "नहीं मैं तो यही नज़्म गाऊँगी". सभाकक्ष तालियों कि गड़गड़ाहट से गूँज उठा और नूरजहाँ ने गाना जारी रखा.

"फ़ैज़" अपनी तकलीफों का बयान नहीं किया करते थे पर जोख़िम उठाने वाले, चुनौतियाँ स्वीकार करने वाले कि वह हमेशा प्रशंसा किया करते थे. उनके लिये जीवन के अंतिम वर्ष कभी सामान्य नहीं रहे. एफ्रो-एशियाई लेखक संघ की पत्रिका लोटस का संपादन एवं अन्य व्यस्तताओं के बावजूद भुट्टो के शासनकाल में उन्होंने लोक-कलाओं पर गहन शोधकार्य किया और पुस्तक श्रंखलाएं प्रकाशित करवाईं. देश और वहाँ के लोगों के साथ जो व्यक्ति दीवानावार प्यार करता हो उसके लिये उनसे दूर किसी अन्य देश में रहने की मजबूरी कितनी तकलीफ़देह होगी, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है. जीवन में मानवता के लिये जिस महान कार्य का बीड़ा उन्होंने उठाया था उसे अंतिम साँस तक निभाते रहे कभी भी कहीं शिथिल नहीं पड़े, हतोत्साहित नहीं हुए.

संस्मरण : भीष्म साहनी

अंग्रेज़ी से अनुवाद : विमल शर्मा
(साभार : आजकल, फ़ैज़ जन्मशती विशेषांक)

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आज आपके लिये फ़ैज़ के मजमुए "मेरे दिल मेरे मुसाफ़िर" से जो नज़्म ले कर आयी हूँ वो फ़ैज़ की इसी वतन-बदरी की तकलीफ़ को दर्शाती है... पढ़िये और सुनिये इकबाल बानो जी की आवाज़ में...

मेरे दिल, मेरे मुसाफ़िर
हुआ फिर से हुक्म सादिर *
कि वतन-बदर * हों हम तुम
दें गली-गली सदाएँ

करें रुख नगर-नगर का
कि सुराग़ कोई पाएँ
किसी यार-ए-नामा-बार * का
हर एक अजनबी से पूछें
जो पता था अपने घर का

सर-ए-कू-ए-न-आशनायाँ *
हमें दिन से रात करना
कभी इस से बात करना
कभी उस से बात करना

तुम्हें क्या कहूँ कि क्या है
शब-ए-ग़म बुरी बला है
हमें ये भी था ग़नीमत
जो कोई शुमार होता

"हमें क्या बुरा था मरना
अगर एक बार होता"
लन्दन, १९७८


रब्बा सच्चिया तूँ ते आखिया सी...  

Posted by richa in ,

आज आप सब के साथ फ़ैज़ की शख़सियत का एक मुख्तलिफ़ पहलू बाँटने जा रही हूँ. एक ऐसा पहलू जिससे बहुत कम लोग वाक़िफ़ होंगे. उर्दू शेर-ओ-सुख़न में फ़ैज़ को जो मुक़ाम हासिल है उसे तो पूरी दुनिया सलाम करती है, पर क्या आप जानते हैं फ़ैज़ ने पंजाबी और अंग्रेज़ी में भी लिखा है.

आज आपके लिये फ़ैज़ की लिखी हुई एक पंजाबी नज़्म ले कर आयी हूँ "रब्बा सच्चिया तूँ ते आखिया सी" जो उनके मजमुए "नक्श-ए-फ़रियादी" से ली है. यूँ तो फ़ैज़ ने पंजाबी में बहुत ज़्यादा नहीं लिखा है, क्यूँकि उनका मानना था कि पंजाबी में इतना कुछ अच्छा पहले ही लिखा जा चुका है कि उनके सामने वो और क्या लिखें. फ़ैज़ बुल्लेशाह के लेखन से बहुत प्रभावित थे.

भाषा भले ही बदली हो पर फ़ैज़ के तेवर नहीं बदले. अपनी इस नज़्म में फ़ैज़ ने भगवान से शिकायत करते हुए कहा है कि उसने इन्सान को इस धरती का राजा बना के भेजा था पर उसे यहाँ भेजने के बाद वो इन्सान को बिलकुल भूल गया, कभी इस बात कि कोई खोज-ख़बर नहीं ली कि वो इस धरती पर कैसे जी रहा है. आइये पढ़ते हैं फ़ैज़ की सच्चे रब से की हुई इस अर्ज़ी को.


रब्बा सच्चिया तूँ ते आखिया सी
जा ओए बंदिया जग दा शाह हैं तूँ
साडियाँ नेहमताँ तेरियाँ दौलताँ ने
साडा नैब ते आलीजाह है तूँ

एस लारे ते टोर कद पुछिया ई
कीह ऐस नमाणे ते बीतियाँ ने
कदी सार वी लई ओ रब साइयाँ
तेरे शाह नाल जग की कीतियाँ ने

किते धौंस पुलिस सरकार दी ए
किते धान्दली माल पटवार दी ए
ऐंवें हडडाँ'च कल्पे जान मेरी
जिंवें फाही च' कूंज कुरलावन्दी ए
चंगा शाह बनाया ई रब साइयाँ
पोले खान्देयाँ वार न आंवदी ए

मैंनूँ शाही नईं चाहीदी रब मेरे
मैं ते इज़्ज़त दा टुक्कड़ मंगनाँ हाँ
मैंनूँ ताँहग नईं, महलाँ माड़ीयाँ दी
मैं ते जीवीं दी नग्गर मंगनाँ हाँ

मेरी मन्ने ते तेरियाँ मैं मन्नां
तेरी सौंह जे इक वी गल्ल मोडां
जे इह मंग नईं पुचदी तैं रब्बा
फेर मैं जावाँ ते रब कोई हौर लोडां

-- फ़ैज़

इन्टरनेट पर मौजूद इस नज़्म के अंग्रेज़ी अनुवाद और जो थोड़ी बहुत पंजाबी हमें समझ आती है उसे मिला जुला कर ये हिंदी अनुवाद करने की कोशिश करी है हमने, शायद आपको ये नज़्म समझने में मदद मिले. हालांकि इस अनुवाद में सुधार की पूरी गुंजाइश है और आप सब से ये गुज़ारिश है कि अगर कोई इसका बेहतर हिंदी अनुवाद कर सकता है तो कृपया अनुवाद कर के हमें भेज दे. तब तक इसी अनुवाद से इस नज़्म को समझने कि कोशिश करिये :)

हे सच्चे परमेश्वर, तुमने ही कहा था
जाओ, ओ आदमी, तुम पृथ्वी के राजा हो
हमारी कृपा और आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं
तुम हमारे डिप्टी और वाइसराय हो

मुझे इस वादे के साथ भेजने के बाद क्या तुमने कभी पूछा
कि मुझ गरीब पे क्या बीत रही है ?
ओ दुनिया के रचयिता, क्या तुमने कभी ये जाने की कोशिश करी
कि तुम्हारे इस राजा के साथ इस दुनिया ने क्या करा ?

कहीं पुलिस वालों का आतंक है
कहीं राजस्व विभाग में धोखाधड़ी है
मेरी आत्मा मेरी हड्डियों की बेडि़यों में जकड़ी हुई है
जाल में फंसे एक चीखते हुए पक्षी की तरह.
अच्छा राजा बनाया मुझे ओ भगवान तुमने
मैंने इतनी मार खायी है कि मैं उसकी गिनती भी नहीं कर सकता

मुझे शासन नहीं चाहिये ओ मेरे भगवान
मैं सिर्फ इज्ज़त से कमाई हुई रोटी चाहिये
मुझे किसी महल की ख़्वाहिश नहीं
मुझे सिर्फ़ सर छुपाने के लिये एक छत चाहिये

अगर आप मेरा अनुरोध स्वीकार करेंगे तो मैं भी आपकी बात मानूँगा
आपकी कसम मैं किसी भी बात से नहीं मुकरूँगा
लेकिन, हे भगवान, अगर तुम्हें ये दलील स्वीकृत नहीं है
तो फिर मैं जाऊँ और किसी और भगवान को खोज के लाऊँ

जितना मुख्तलिफ़ फ़ैज़ का ये अंदाज़ है उतना ही जुदा है नहीद सिद्दीकी जी का फ़ैज़ को श्रद्धांजलि देने का ये तरीका. आप भी देखिये और आनंद लीजिये फ़ैज़ की इस नज़्म पर मंत्रमुग्ध कर देने वाले इस कत्थक नृत्य का.



इस ख़ूबसूरत प्रस्तुति के बाद आइये सुनते हैं इस नज़्म को टीना सानी जी की भावपूर्ण आवाज़ में, "कोक स्टूडियो" नाम के एक पाकिस्तानी टेलीविज़न कार्यक्रम में दिये हुए लाइव परफौरमेंस से.


इक तमन्ना सताती रही रात भर...  

Posted by richa in ,

तमाम शब दिल-ए-वहशी तलाश करता है
हर इक सदा में तेरे हर्फ़-ए-लुत्फ़ का आहंग
हर एक सुबह मिलाती है बार-बार नज़र
तेरे दहन से हर इक लाला-ओ-गुलाब का रंग
-- फ़ैज़

ख़ुशामदीद ! फ़ैज़ की महफ़िल-ए-शेर-ओ-सुख़न में एक बार फिर आप सब का स्वागत है. आज आप सब के लिये फ़ैज़ के मजमुए "शाम-ए-शहर-ए-याराँ" से एक बेहद ख़ूबसूरत ग़ज़ल चुन के लाये हैं. ये ग़ज़ल फ़ैज़ ने अपने दोस्त और उर्दू के मशहूर शायर मख़दूम मोहिउद्दीन की याद में उनकी ही ग़ज़ल से प्रेरित होकर लिखी थी.

मख़दूम भी फ़ैज़ के साथ प्रोग्रेस्सिव राइटर असोसिएशन (पी.डब्लू.ए) के प्रमुख सदस्यों में से एक थे और मार्क्सवादी विचारधारा को मानने वाले एक तरक्की-पसंद शायर थे. मख़दूम ने १९४६ - ५१ तक चले "तेलंगाना आन्दोलन" में बढ़ चढ़ के हिस्सा भी लिया था.

आइये पहले पढ़ते हैं मख़दूम जी की लिखी हुई ग़ज़ल और उसे सुनते हैं छाया गांगुली जी की आवाज़ में, इस ग़ज़ल को मुज़फ्फ़र अली द्वारा निर्देशित और फ़ारुख शेख़ एवं स्मिता पाटिल अभिनीत फिल्म "गमन" में इस्तेमाल किया गया था.

आप की याद आती रही रात भर
चश्म-ए-नम मुस्कुराती रही रात भर

रात भर दर्द की शमा जलती रही
गम की लौ थरथराती रही रात भर

बाँसुरी की सुरीली सुहानी सदा
याद बन बन के आती रही रात भर

याद के चाँद दिल में उतरते रहे
चाँदनी डगमगाती रही रात भर

कोई दीवाना गलियों में फिरता रहा
कोई आवाज़ आती रही रात भर

-- मख़दूम मोहिउद्दीन


और अब पढ़ते हैं फ़ैज़ साब की इस ग़ज़ल को जो उन्होंने मख़दूम की ग़ज़ल से प्रेरित हो कर लिखी. इस ग़ज़ल को हम सुनेंगे "पी.टी.वी." पर आयोजित एक संगीत-गोष्ठी से पाकिस्तान की मशहूर ग़ज़ल गायिका टीना सानी जी की आवाज़ में.

उम्मीद है आपको भी आज की ग़ज़लें उतनी ही पसंद आयेंगी जितनी की हमें पसंद हैं. कैसी लगीं बताइयेगा ज़रूर...

"आपकी याद आती रही रात भर"
चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर

गाह जलती हुई, गाह बुझती हुई
शम-ए-ग़म झिलमिलाती रही रात भर

कोई ख़ुशबू बदलती रही पैरहन *
कोई तस्वीर गाती रही रात भर

फिर सबा * साया-ए-शाख़े-गुल * के तले
कोई किस्सा सुनाती रही रात भर

जो ना आया उसे कोई ज़ंजीर-ए-दर *
हर सदा पर बुलाती रही रात भर

एक उम्मीद से दिल बहलता रहा
इक तमन्ना सताती रही रात भर

मॉस्को, सितम्बर १९७८

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