रात यूँ दिल में तेरी खोई हुई याद आयी
जैसे वीराने में चुपके से बहार आ जाये
जैसे सहराओं* में हौले से चले बादे-नसीम*
जैसे बीमार को बे-वज्ह क़रार आ जाये
-- फैज़
जैसे वीराने में चुपके से बहार आ जाये
जैसे सहराओं* में हौले से चले बादे-नसीम*
जैसे बीमार को बे-वज्ह क़रार आ जाये
-- फैज़
इन ख़ूबसूरत रूमानी पंक्तियों के साथ आगाज़ होता है फैज़ के पहले कविता संग्रह 'नक्श-ए-फ़रियादी' का और आज जो ग़ज़ल आपके साथ बांटने जा रही हूँ वो भी इसी संग्रह से है - नसीब आज़माने के दिन आ रहे हैं...
इस ग़ज़ल को पढ़ने से पहले आइये जानते हैं ख़ुद फैज़ साहब का इस किताब और इसकी नज़्मों के बारे में क्या कहना था.
नक्श-ए-फ़रियादी चंद गज़लों, नज़्मों और कतओं से सजा एक छोटा सा कविता संग्रह है, किसी छोटे से गुलदस्ते की मानिंद, जिसमें सजा हर फूल उतना ही ख़ुशबूदार है... पर फैज़ इस बात से शायद सहमत नहीं थे, शायद यही वजह थी की उन्होंने नक्श-ए-फ़रियादी की संक्षिप्त भूमिका में लिखा है,
"इस मज़्मुआ (संकलन) की इशाअत (प्रकाशन) एक तरह एतराफे-शिकस्त (पराजय की स्वीकृति) है. शायद इसमें दो बार नज्में क़ाबिल-ए-बर्दाश्त हों. लेकिन दो-बार नज़्मों को किताबी सूरत में तबा करवाना (छपवाना) मुमकिन नहीं. उसूलन मुझे इंतज़ार करना चाहिये था की ऐसी नज्में ज़्यादा तादाद में जमा हो जाएँ. लेकिन यह इंतज़ार कुछ अबस (व्यर्थ) मालूम होने लगा है. शेर लिखना जुर्म न सही, लेकिन बेवजह शेर लिखते रहना कुछ ऐसी दानिशमंदी (अक्लमंदी) भी नहीं....."
लेखन के बारे में फैज़ की राय स्पष्ट है, कि बेवजह कुछ भी लिखते रहना सिर्फ़ लिखने के लिये कोई समझदारी की बात नहीं है. कोई वजह बहुत ज़रूरी है, कुछ ऐसा जो आपको दिल से सोचने और लिखने के लिये मजबूर कर दे, फिर चाहे वो वजह मोहब्बत हो, सियासत हो या सामाजिक हो. क्यूँकि लिखते लिखते या बोलते बोलते, अभ्यास से, किसी को भी लिखने और बोलने का सलीक़ा तो आ जाता है पर जब तक आप किसी चीज़ को दिल से महसूस नहीं करते आपकी बात में वज़न नहीं आता और आप उसे सही ढंग से लोगों तक पहुँचा नहीं पाते.
आइये अब इस ग़ज़ल के बारे में जानते हैं. ये ग़ज़ल 'नक्श-ए-फ़रियादी' के पहले भाग (1928 से 1935 तक) में शामिल है, यानी ये फैज़ के लेखन के शुरूआती दौर की है, जब रूमानियत उनकी ग़ज़लों और नज़्मों का मौज़ू हुआ करती थी.
नसीब आज़माने के दिन आ रहे हैं
क़रीब उनके आने के दिन आ रहे हैं
जो दिल से कहा है, जो दिल से सुना है
सब उनको सुनाने के दिन आ रहे हैं
अभी से दिल-ओ-जां सर-ए-राह रख दो
के लुटने-लुटाने के दिन आ रहे हैं
टपकने लगी उन निगाहों से मस्ती
निगाहें चुराने के दिन आ रहे हैं
सबा* फिर हमें पूछती फिर रही है
चमन को सजाने के दिन आ रहे हैं
चलो 'फ़ैज़' फिर से कहीं दिल लगायें
सुना है ठिकाने के दिन आ रहे हैं
क़रीब उनके आने के दिन आ रहे हैं
जो दिल से कहा है, जो दिल से सुना है
सब उनको सुनाने के दिन आ रहे हैं
अभी से दिल-ओ-जां सर-ए-राह रख दो
के लुटने-लुटाने के दिन आ रहे हैं
टपकने लगी उन निगाहों से मस्ती
निगाहें चुराने के दिन आ रहे हैं
सबा* फिर हमें पूछती फिर रही है
चमन को सजाने के दिन आ रहे हैं
चलो 'फ़ैज़' फिर से कहीं दिल लगायें
सुना है ठिकाने के दिन आ रहे हैं
आज के लिये बस इतना ही... मिलती हूँ अगली पोस्ट में... तब तक आपको नय्यारा नूर जी के साथ छोड़े जा रही हूँ... उनकी आवाज़ में सुनिये - रात यूँ दिल में तेरी खोई हुई याद आयी...
* इन शब्दों का अर्थ जानने के लिये माउस उसके ऊपर ले जाएँ