हम सहलतलब* कौन से फरहाद* थे लेकिन
अब शहर में कोई तेरे हम सा भी कहाँ है
-- फैज़
फैज़ को जानने, समझने और आप सभी तक सही ढंग से पहुँचाने की कोशिश में इन दिनों काफ़ी कुछ पढ़ा उनके बारे में किताबों में और इन्टरनेट पर भी. इसी सिलसिले में एक दिन "यू ट्यूब" पर कुछ वीडियो देखे. 20 नवम्बर 2008 को फैज़ की चौबीसवीं बरसी के मौके पर "समा टी.वी." नाम के एक पाकिस्तानी टी.वी. चैनल ने फैज़ पर श्रद्धांजलि के रूप में एक कार्यक्रम पेश किया था. इसे बहुत ही उम्दा तरीके से प्रस्तुत किया मशहूर एंकर/प्रोड्यूसर, मेहेर बोख़ारी जी ने. स्टूडियो में फैज़ के बारे में बात करने आये थे फैज़ के बेहद क़रीबी दोस्त, हमीद अख्तर साहब और फैज़ के बड़े नवासे यासिर हाशमी जी, और साथ ही एक और मशहूर शायर अनवर शऊर साहब भी लाहौर स्टूडियो से साथ में थे.
फैज़ के बारे में बातचीत का सिलसिला कुछ यूँ शुरू हुआ कि हम बिलकुल ठगे से सुनते रहे और एक के बाद एक पूरे कार्यक्रम के पाँचों विडियो कब देख डाले पता ही नहीं चला. अगर आप भी हमारी ही तरह फैज़ के मुरीद हैं और उनके बारे में और क़रीब से जानना चाहते हैं तो आपसे बस इतना ही चाहूँगी कि थोड़ा सा समय निकाल के इन विडियोज़ को एक बार ज़रूर देखें. वैसे हम कोशिश करते हैं यहाँ हर भाग में हुई बातचीत का थोड़ा सा सार आपको बताने की, फिर भी एक बार आप ख़ुद देखें तो अलग ही मज़ा आयेगा.
पूरे कार्यक्रम में बातचीत के दौरान जो एक बात उभर कर सामने आयी वो ये थी कि फैज़ ना सिर्फ़ एक तरक्क़ी पसंद, इन्क़लाबी शायर थे, बल्कि एक बेहद अच्छे, नर्म दिल, अपने उसूलों के पक्के और सबसे बड़ी बात की एक मुकम्मल इन्सान थे.
पहले भाग में हमीद अख्तर साहब फैज़ की शख्सियत के सबसे नुमाया पहलू के बारे में बात करते हुए बताते हैं की उनकी लेखनी ने किस कदर का असर डाला था उस समय (1940-41) के लोगों पर और उनका लिखा "मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब ना माँग" लोगों के लिये एक मिसाल बन गया था. वो ये भी कहते हैं की फैज़ की तारीफ़ जो नूरजहाँ ने करी है उससे बेहतर तारीफ़ तो कोई कर ही नहीं सकता. बकौल हमीद साहब, नूरजहाँ ने उनसे कहा था -
"मैं तो फैज़ पर मरती हूँ, मगर मुझे मालूम नहीं की मेरा क्या रिश्ता है... कभी मुझे वो शौहर नज़र आते हैं, कभी आशिक नज़र आते हैं, कभी महबूब नज़र आते हैं, कभी बाप नज़र आते हैं, कभी बेटा नज़र आते हैं..."
इसके अलावा अनवर साहब भी उनके बारे में बात करते हुए कहते हैं की वो बेहद शाइस्ता, नर्म और भले इन्सान थे और जो लोग डायबिटीज़ के मरीज़ हैं उन्हें फैज़ की शायरी नहीं पढनी चाहिये क्यूँ की वो बेहद मीठी होती है :)
दूसरे भाग में हमीद साहब "रावलपिंडी साज़िश केस" के बारे में तफ़सील से बात करते हैं और अपने समय के कई क़िस्से सुनते हुए कहते हैं की जितने बड़े वो शायर थे उससे कहीं बड़े वो इन्सान थे. इसके अलावा प्रसिद्द शायर और लेखक असग़र नदीम सैय्यद साहब और फैज़ की बेटी मोनीज़ा हाशमी जी भी फैज़ के बारे में बहुत सी बातें बतातें हैं. मोनीज़ा बताती हैं की वो बेहद शांतिप्रिय इन्सान थे पर उनकी इन्क़लाबी सोच की वजह से बहुत से लोग उन्हें नापसंद करते थे और उसकी वजह से उन्हें बहुत सी दिक्कतों का सामना भी करना पड़ा.
तीसरे भाग में यासिर बताते हैं कि फैज़ की बस एक कमजोरी थी कि वो ताक़त का इस्तेमाल नहीं कर सकते थे शायद इसी वजह से वो ट्रेड यूनियन और प्रैक्टिकल पौलिटिक्स में कभी सफल नहीं हो पाये क्यूँकि वो किसी से ज़ोर ज़बरदस्ती से काम नहीं करवा सकते थे. एक और बहुत ख़ूबसूरत बात पता चली की किस तरह फैज़ ने जेल और मोहब्बत की तुलना कर के कैसे जेलखाने को भी बेहद ख़ूबसूरत बना दिया. इसके अलावा अनवर शऊर साहब, हामिद साहब और यासिर इस बात पर अपनी-अपनी मुख्तलिफ़ राय देते हैं की फैज़ की शायरी आज भी आलमगीर (इटरनल) क्यूँ हैं, उनकी कही हुई बातें आज के परिपेक्ष में भी उतनी ही उपयुक्त लगती हैं जितनी की आज से साठ, सत्तर बरस पहले थीं.
चौथे भाग में फैज़ के नाती अदील हाशमी साहब से बातचीत होती है. अदील कहते हैं की कुछ बातें जैसे की प्यार, मोहब्बत और उम्मीद की बातें हमेशा ही उपयुक्त और प्रासंगिक लगती हैं, चाहे उन्हें कभी भी पढ़ा जाये ये लगता है की ये अभी ही लिखी गयी है आज ही के परिपेक्ष में. अदील ये भी कहते हैं अपने नाना के बारे में की उनमें जो एक मीठापन, धीमापन और सब्र था वो हर इन्सान में होना चाहिये. हमीद साहब बताते हैं की कैसे फैज़ की बीवी एलिस ने उनका साथ दिया सारी ज़िन्दगी और एक बार जब एलिस से पूछा गया की फैज़ की शायरी समझ आती है क्या उन्हें, तो वो बोली - "शायरी ना सही शायर को तो समझती हूँ".
फैज़ के दामाद सोहेल हाशमी साहब बताते हैं की किस तरह उन्होंने फैज़ साहब से, उनकी बेटी सलीमा से निक़ाह की बात करी और सलीमा जी बताती हैं की फैज़ बिलकुल भी सख्त नहीं थे और एक पिता कम, दोस्त ज़्यादा थे और वो हँसी हँसी में कहती हैं की उनसे कभी भी डर नहीं लगा, वो तो अपनी पार्टी के बन्दे थे.
पांचवे और अंतिम भाग में यासिर बतातें हैं की आज के दौर के लोगों के लिये, ख़ासकर युवा पीढ़ी के लिये, फैज़ को पढ़ने से पहले ये जानना बहुत ज़रूरी है कि वो सिर्फ़ एक रूमानी शायर नहीं थे बल्कि एक बहुत बड़े इन्क़लाबी शायर थे और क्यूँकि वो उस समय की कद्रों के सख्त खिलाफ थे इस वजह से उन्हें जेल में डाला गया था और उनके लफ़्जों में वो ताक़त थी, वो असर था कि वो पूरी आवाम को उकसा सकते थे, उसमें हलचल मचा सकते थे और शायद इसी वजह से उन्हें क़रीब 6 सालों के लिये देश निकाला भी मिला था.
फैज़ की महफ़िल हो और उनकी कोई ग़ज़ल ना पढ़ी जाये ऐसा भला कैसे हो सकता है... नहीं तो महफ़िल अधूरी ही रह जायेगी... आज की ग़ज़ल, फैज़ के कविता संग्रह "ज़िन्दाँनामा" से ली है, जो उन्होंने जेल में लिखा था और ये ग़ज़ल वाकई इस बात की पुष्टि करती है कि वो फैज़ का ही हुनर था कि उन्होंने जेल के माहौल को भी मोहब्बत सा ख़ूबसूरत बना दिया.
मांटगोमरी जेल
29 जनवरी 1954
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