आ गई फ़स्ल-ए-सुकूँ चाक़ गरेबाँ वालों
सिल गये होंठ, कोई ज़ख्म सिले या न सिले
दोस्तों बज़्म सजाओ के बहार आयी है
खिल गये ज़ख्म, कोई फूल या न खिले
-- फैज़
आज आप सबकी पेश-ए-नज़र "शाम-ए-शहर-ए-याराँ" से फैज़ की एक बेहद ख़ूबसूरत नज़्म ले कर आये हैं. जो हमारी पसंदीदा है शायद तब से जब फैज़ को समझना भी शुरू नहीं करा था, सिर्फ़ इसे सुना था टीना सानी जी की आवाज़ में, सही बताऊँ तो तब ये भी नहीं पता था की टीना सानी नाम की कोई मशहूर पाकिस्तानी गायिका भी हैं जिन्होंने इस नज़्म को इस ख़ूबसूरती से गया है. ख़ैर नज़्म बाद में सुनते हैं पहले कुछ बात फैज़ साहब के बारे में...
फैज़ की शायरी के बहुआयामी फ़लक के बारे में उर्दू के एक बुज़ुर्ग शायर 'असर' लखनवी साहब कहते हैं -
"फैज़ की शायरी तरक्क़ी के मदारिज (दर्जे) तय करके अब इस नुक्ता-ए-उरूज (शिखर-बिंदु) पर पहुँच गई है, जिस तक शायद ही किसी दूसरे तरक्की-पसंद शायर की रसाई हुई हो. तख़य्युल (कल्पना) ने सनाअत (शिल्प) के जौहर दिखाए हैं और मासूम जज़्बात को हसीन पैकर (आकार) बक्शा है. ऐसा मालूम होता है की परियों का एक गौल (झुण्ड) एक तिलिस्मी फ़ज़ा (जादुई वातावरण) में इस तरह से मस्त-ए-परवाज़ (उड़ने में मस्त) है कि एक पर एक की छूत पड़ रही है और कौस-ए-कुज़ह (इन्द्रधनुष) के अक्क़ास (प्रतिरूपक) बादलों से सबरंगी बारिश हो रही है....."
फैज़ की शायरी की इस ख़ूबसूरत तारीफ़ के फ़लक को आइये थोड़ा और कुशादा करते हैं और पढ़ते और सुनते हैं उनकी ये ख़ूबसूरत नज़्म "बहार आई" जो एक पंक्ति में बोला जाये तो बस इतना सा मतलब है की वो सारे ज़ख्म, वो सारे दर्द जो किसी के जाने से मिले थे, बीता हुआ समय जिन्हें मद्धम कर चुका था, बहार के आने से एक बार फिर खिल उठे हैं, हरे हो गये हैं... पर ये फैज़ के शब्दों का ही जादू है की दर्द भी कितना ख़ूबसूरत लग रहा है उनसे सज के...
लौट आये हैं फिर अदम * से
वो ख़्वाब सारे, शबाब सारे
जो तेरे होंठों पे मर मिटे थे
जो मिट के हर बार फिर जिये थे
निखर गये हैं गुलाब सारे
जो तेरी यादों से मुश्कबू * हैं
जो तेरे उश्शाक़ * का लहू हैं
उबल पड़े हैं अज़ाब * सारे
मलाल-ए-एहवाल-ए-दोस्ताँ * भी
ख़ुमार-ए-आग़ोश-ए-महवशां * भी
गुबार-ए-ख़ातिर के बाब * सारे
तेरे हमारे
सवाल सारे, जवाब सारे
बहार आई तो खुल गये हैं
नये सिरे से हिसाब सारे !
शाम-ए-शहर-ए-याराँ