दूर जा कर क़रीब हो जितने
हमसे कब तुम क़रीब थे इतने
अब न आओगे तुम न जाओगे
वस्ल-ओ-हिज्राँ * बहम * हुए कितने
-- फैज़
यूँ तो अपनी शायरी में और अपने चाहने वालों के दिलों में फैज़ आज भी ज़िन्दा हैं और हमेशा रहेंगे पर इस दुनिया से रुख़सत लिये हुए आज उन्हें पूरे छब्बीस साल हो गये. आज फैज़ की छब्बीसवीं बरसी पर आइये उन्हें याद करते हैं और एक छोटी सी श्रद्धांजलि देते हैं.
20 नवम्बर 1984 की दोपहर एक लम्बी बीमारी के बाद इस दुनिया को अलविदा कर फैज़ की क़लम और फैज़ दोनों हमेशा के लिये ख़ामोश हो गये... पर उनके इन्तेक़ाल के इतने बरस गुज़र जाने के बाद भी फैज़ की शायरी आज भी साँस लेती है और उनकी रूह आज भी ताज़ातन है हम सबके दिलों में. फैज़ को जितनी शोहरत अपने जीवनकाल में मिली उससे कहीं ज़्यादा इज्ज़त और शोहरत उसके बाद मिली.
फैज़ की शायरी एक बाक़ायदा "स्कूल ऑफ़ थॉट" का दर्जा रखती है. उर्दू शायरी से लगाव रखने वाला शायद ही कोई ऐसा शक्स होगा जो फैज़ की शायरी से प्रभावित ना हुआ हो. फिर चाहे वो हम और आप हों या कि आज के दौर के नामी गिरामी शायर और लेखक. आइये सुनते हैं जावेद अख्तर साहब, गुलज़ार साहब और ज़ेहरा नेगहा जी का फैज़ के बारे में क्या कहना है.
फैज़ की शायरी सिर्फ़ शायरी नहीं है उसका एक ख़ास मतलब है उनके पाठकों के लिये. वह सही मायनों में ज़िन्दगी की शायरी है - उसकी समग्रता का गर्माहट-भरा राग. लोग उसे दिल की गहराइयों से प्यार करते हैं और ज़िन्दगी के अहम मोड़ों पर उससे रौशनी पाते हैं.
फैज़ को श्रद्धांजलि देने की इस कड़ी में आइये आज पढ़ते हैं उनकी एक बेहद ख़ूबसूरत नज़्म "ढाका से वापसी पर" उनके कविता संग्रह "शाम-ए-शहर-ए-याराँ" से और उसके बाद इसी नज़्म को दो अलग लोगों से दो अलग अंदाज़ में सुनेंगे.
फैज़ को श्रद्धांजलि देने की इस कड़ी में आइये आज पढ़ते हैं उनकी एक बेहद ख़ूबसूरत नज़्म "ढाका से वापसी पर" उनके कविता संग्रह "शाम-ए-शहर-ए-याराँ" से और उसके बाद इसी नज़्म को दो अलग लोगों से दो अलग अंदाज़ में सुनेंगे.
हम के ठहरे अजनबी इतनी मदारातों * के बाद
फिर बनेंगे आशना * कितनी मुलाक़ातों के बाद
कब नज़र में आयेगी बे-दाग़ सब्ज़े * की बहार
ख़ून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद
थे बहुत बे-दर्द लम्हें ख़त्म-ए-दर्द-ए-इश्क़ * के
थीं बहुत बे-महर * सुबहें मेहरबाँ रातों के बाद
दिल तो चाहा पर शिकस्त-ए-दिल * ने मोहलत * ही न दी
कुछ गिले-शिकवे भी कर लेते मुनाजातों * के बाद
उन से जो कहने गये थे "फ़ैज़" जाँ सदक़ा * किये
अनकही ही रह गई वो बत सब बातों के बाद
1974
शाम-ए-शहर-ए-याराँ
शाम-ए-शहर-ए-याराँ
आइये अब इस नज़्म को सुनते हैं नय्यारा नूर जी की दिलकश आवाज़ में -
और अब इसी नज़्म का एक बिलकुल अलग अंदाज़ मुज़फ्फर अली जी के एल्बम "पैग़ाम-ए-मोहब्बत" से. मुज़फ्फ़र साहब ने बिलकुल अलग तरह का प्रयोग किया है इस नज़्म के साथ, उसे क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम की बंगाली कविता "मोनी पोड़े आज शे कोन" के साथ मिला कर. अब इसे फैज़ और नज़रुल के कलम का जादू कहिये या मुज़फ्फ़र साहब के संगीत की जादूगरी या फिर उस्ताद मोईन ख़ान और शोर्जू भट्टाचार्य जी की आवाज़ का कमाल कि दोनों ही गीत कुछ ऐसे घुल मिल गये हैं आपस में कि उर्दू और बंगाली का अंतर ही मिट गया है. सुनिये और ख़ुद ही महसूस कीजिये जो हम शब्दों में समझा नहीं पा रहे शायद...
चलते चलते बस इतना ही कहूँगी कि फैज़ को इतना पढ़ने समझने के बाद भी लगता है पता नहीं कितना समझ पायें हैं उनको, और जो भी समझा है क्या सही समझा है, क्या वही समझा है जो वो कहना चाह रहे थे...
जो रुके तो कोहे-गराँ * थे हम, जो चले तो जाँ से गुज़र गये
रहे-यार हमने क़दम क़दम तुझे यादगार बना दिया...
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November 20, 2010
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Saturday, November 20, 2010
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