क़रीब और भी आओ के शौक़-ए-दीद * मिटे
शराब और पिलाओ के कुछ नशा उतरे
-- फैज़
फैज़ की लेखनी में जो टशन था, बात को कहने का जो अंदाज़ था वो इस ग़ज़ल में बड़े ही बेहतरीन तरीक़े से उभर के आया है. अपनी बात को कहने का ये अंदाज़ ही फैज़ को उनके ज़माने के अन्य शायरों से जुदा करता है और यही कारण है कि उर्दू शेर-ओ-सुख़न के इतिहास में फैज़ को एक मुख्तलिफ़ और बेहद ऊँचा मक़ाम हासिल है, जिसे पिछले तकरीबन पचास सालों में भी कोई नहीं छू पाया है.
उर्दू के एक आलोचक मुमताज़ हुसैन के कथनानुसार -
"उसकी शायरी में अगर एक परम्परा क़ैस (मजनूं) की है तो दूसरी मन्सूर ** की. "फैज़" ने इन दोनों परम्पराओं को अपनी शायरी में कुछ इस प्रकार समो लिया है कि उसकी शायरी स्वयं एक परम्परा बन गई है. वह जब भी महफ़िल में आया, एक छोटी-सी पुस्तक, एक क़तआ, ग़ज़ल के कुछ शेर, कुछ यूँ-ही सा काव्य-अभ्यास और कुछ क्षमा-याचना की बातें ले कर आया, लेकिन जब भी आया और जैसे भी आया, खूब आया..."
** एक प्रसिद्ध ईरानी वाली जिनका विश्वास था की आत्मा और परमात्मा एक ही हैं और उन्होंने 'अनल-हक़' (सोऽहं - मैं ही परमात्मा हूँ) की आवाज़ उठाई थी. उस समय के मुसलमानों को उनका यह नारा अधार्मिक लगा और उन्होंने उन्हें फांसी दे दी.
नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू * ही सही
नहीं विसाल * मयस्सर * तो आरज़ू ही सही
न तन में ख़ून फ़राहम * न अश्क़ आँखों में
नमाज़-ए-शौक़ तो वाजिब * है बे-वज़ू * ही सही
यही बहुत है के सालिम * है दिल का पैराहन *
ये चाक़-चाक़ * गरेबाँ बे-रफ़ू * ही सही
किसी तरह तो जमे बज़्म * मयक़दे वालों *
नहीं जो बादा-ओ-साग़र * तो हा-ओ-हू * ही सही
गर इन्तज़ार कठिन है तो जब तलक ऐ दिल
किसी के वादा-ए-फ़र्दा * की गुफ़्तगू * ही सही
दयार-ए-ग़ैर * में महरम * अगर नहीं कोई
तो 'फ़ैज़' ज़िक्र-ए-वतन अपने रू-ब-रू * ही सही
आइये अब इस ग़ज़ल को सुनते हैं बेग़म आबिदा परवीन जी की आवाज़ में, उम्मीद है आपको भी पसंद आएगी -