12
Jan

अपने अफ़कार की, अशआ'र की दुनिया है यही...  

Posted by richa in ,

ये खूँ की महक है के लब-ए-यार की ख़ुशबू
किस राह की जानिब से सबा आती है देखो
गुलशन में बहार आई, के ज़िन्दां * हुआ आबाद
किस सिम्त * से नग़मों की सदा आती है देखो
-- फ़ैज़



आज फ़ैज़ की इस महफ़िल में आप सब के लिये जो नज़्म ले कर आयी हूँ उसका शीर्षक है "मौज़ू-ए-सुख़न", जो उनके पहले संग्रह "नक्श-ए-फ़रियादी" से ली है. ये वो वक़्त था जब फ़ैज़ रूमानी शायरी ज़्यादा लिखा करते थे, हालाँकि हक़ीक़त और सामाजिक परिवेश और परिस्थितियों से उस वक़्त भी उनकी रचनायें अछूती नहीं रहा करती थीं, जैसा की इस नज़्म के बाद के हिस्से में भी देखा जा सकता है. पर ये फ़ैज़ के कलम का ही जादू था की वो इस ख़ूबसूरती से रूमान, फंतासी, हक़ीक़त और क्रांति को सम्मिश्रित करते थे की आज भी उन्हें पढ़ने वाला बरबस ही "वाह" कर उठता है...

इस नज़्म में उन्होंने बड़ी ही ख़ूबसूरती से एक शायर के दिल का हाल बताया है कि एक तरफ़ तो बेपनाह ख़ूबसूरत हसीनायें है और दूसरी तरफ़ भूख उगाते खेत और चूर हो कर बिख़रते ख़्वाब... वो ख़्वाब जो लोगों को जीने का हौसला देतें हैं... तो वो शायर क्यूँ ना उस ख़ूबसूरती के बारे में लिखे उन शोख हसीनाओं और उन ख़्वाबीदः आँखों और रंगीन रुखसार के बारे में लिखे... इससे बेहतर कोई और मौज़ूँ क्या होगा उसकी शायरी का.

आइये अब पढ़ते हैं और फिर सुनते हैं ये ख़ूबसूरत सी नज़्म बेग़म आबिदा परवीन जी की आवाज़ में -


गुल हुई जाती है अफ़सुर्दः * सुलगती हुई शाम
धुल के निकलेगी अभी चश्म-ए-महताब * से रात
और मुश्ताक़ * निगाहों की सुनी जायेगी
और उन हाथों से मस * होंगे ये तरसे हुए हाथ

उनका आँचल है, कि रुखसार, कि पैराहन * है
कुछ तो है जिससे हुई जाती है चिलमन रंगीं
जाने उस ज़ुल्फ़ की मौहूम * घनी छाँव में
टिमटिमाता है वो आवेज़ः * अभी तक कि नहीं

आज फिर हुस्न-ए-दिलआरा * की वही धज होगी
वही ख़्वाबीदः * सी आँखें, वही काजल की लकीर
रंगे-रुख़सार पे हल्का सा वो गाज़े * का ग़ुबार
संदली हाथ पे धुंधली सी हिना की तहरीर *

अपने अफ़कार * की, अशआ'र की दुनिया है यही
जाने-मज़मूँ * है यही, शाहिद-ए-मानी * है यही

आज तक सुर्ख़-ओ-सियह सदियों के साये के तले
आदम-ओ-हव्वा की औलाद पे क्या गुज़री है
मौत और जीस्त की रोज़ान: सफ़आराई * में
हम पे क्या गुज़रेगी, अजदाद * पे क्या गुज़री है

इन दमकते हुए शहरों की फ़रावाँ मख़लूक़ *
क्यूँ फ़क़त मरने की हसरत में जिया करती है
ये हसीं खेत, फटा पड़ता है जोबन जिनका
किसलिए इनमें फ़क़त भूख उगा करती है

ये हर इक सिम्त पुर-असरार * कड़ी दीवारे
जल बुझे जिनमें हज़ारों की जवानी के चिराग़
ये हर इक गाम पे उन ख़्वाबों के मक़तलगाहें *
जिनके परतौ * से चिरागाँ हैं हज़ारों के दिमाग़

ये भी हैं ऐसे कई और भी मज़मूँ होंगे
लेकिन उस शोख़ के आहिस्ता से खुलते हुए होंठ
हाय उस जिस्म के कमबख्त दिलआवेज़ * ख़ुतूत
आप ही कहिये कहीं ऐसे भी अफ्सूँ * होंगे

अपना मौज़ू-ए-सुख़न * इनके सिवा और नहीं
तब-ए-शायर * का वतन इनके सिवा और नहीं


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