हम अपने वक़्त में गुज़रे जहान-ए-गुज़राँ * से
नज़र में रात लिये दिल में आफ़ताब * लिये
हम अपने वक़्त पे पहुँचे हुज़ूर-ए-यज़्दाँ * में
ज़बाँ पे हम्द * लिये हाथ में शराब लिये
-- फ़ैज़
संस्मरण : भीष्म साहनी
अंग्रेज़ी से अनुवाद : विमल शर्मा
(साभार : आजकल, फ़ैज़ जन्मशती विशेषांक)
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आज आपके लिये फ़ैज़ के मजमुए "मेरे दिल मेरे मुसाफ़िर" से जो नज़्म ले कर आयी हूँ वो फ़ैज़ की इसी वतन-बदरी की तकलीफ़ को दर्शाती है... पढ़िये और सुनिये इकबाल बानो जी की आवाज़ में...
मेरे दिल, मेरे मुसाफ़िर
हुआ फिर से हुक्म सादिर *
कि वतन-बदर * हों हम तुम
दें गली-गली सदाएँ
करें रुख नगर-नगर का
कि सुराग़ कोई पाएँ
किसी यार-ए-नामा-बार * का
हर एक अजनबी से पूछें
जो पता था अपने घर का
सर-ए-कू-ए-न-आशनायाँ *
हमें दिन से रात करना
कभी इस से बात करना
कभी उस से बात करना
तुम्हें क्या कहूँ कि क्या है
शब-ए-ग़म बुरी बला है
हमें ये भी था ग़नीमत
जो कोई शुमार होता
"हमें क्या बुरा था मरना
अगर एक बार होता"
नज़र में रात लिये दिल में आफ़ताब * लिये
हम अपने वक़्त पे पहुँचे हुज़ूर-ए-यज़्दाँ * में
ज़बाँ पे हम्द * लिये हाथ में शराब लिये
-- फ़ैज़
परिस्थितियाँ कभी भी "फ़ैज़" के अनुकूल नहीं रही. उनका जीवन सदैव दुविधाओं में घिरा रहा. यद्यपि उनका कार्यक्षेत्र बहुत विस्तृत था तथापि अपने देश से बेगानेपन का भाव हमेशा बना रहा. उनकी सरकार ने उनके प्रति कभी सौहार्द-भाव नहीं दिखाया. उनकी किताबें ज़ब्त कर ली गई और उन पर निरंतर नज़रबंदी का पहरा लगाए रखा. शारीरिक यातनाएँ उन्हें इसलिए नहीं दी गयीं की देश की जनता उन्हें सिर-आँखों पर बैठाए रखती थी और उनकी शायरी की दीवानी थी. कुछ वर्ष पूर्व लाहौर में घटी एक घटना का ज़िक्र एक बार "फ़ैज़" ने मुझसे किया था - विश्वविद्यालय के सभाकक्ष में संगीत के एक आयोजन में अन्य गायकों के साथ प्रसिद्ध गायिका नूरजहाँ को भी बुलाया गया था, जब वह मंच पर गाने के लिये आईं तो उन्होंने "फैज़" की मशहूर नज़्म गाना शुरू किया - "मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग". सभाकक्ष में सन्नाटा छा गया. शासन के अनेक उच्च अधिकारी भी वहाँ पर उपस्थित थे. यह गीत सुनते ही उनमें खुसर-फुसर आरम्भ हो गई. संयोजक ने मंच पर आकर नूरजहाँ के कान में फुसफुसाकर कहा कि वह कोई दूसरा गीत गायें. उस निडर महिला ने आदेश मानने से इनकार कर दिया और श्रोताओं को सुनाते हुए कहा - "नहीं मैं तो यही नज़्म गाऊँगी". सभाकक्ष तालियों कि गड़गड़ाहट से गूँज उठा और नूरजहाँ ने गाना जारी रखा.
"फ़ैज़" अपनी तकलीफों का बयान नहीं किया करते थे पर जोख़िम उठाने वाले, चुनौतियाँ स्वीकार करने वाले कि वह हमेशा प्रशंसा किया करते थे. उनके लिये जीवन के अंतिम वर्ष कभी सामान्य नहीं रहे. एफ्रो-एशियाई लेखक संघ की पत्रिका लोटस का संपादन एवं अन्य व्यस्तताओं के बावजूद भुट्टो के शासनकाल में उन्होंने लोक-कलाओं पर गहन शोधकार्य किया और पुस्तक श्रंखलाएं प्रकाशित करवाईं. देश और वहाँ के लोगों के साथ जो व्यक्ति दीवानावार प्यार करता हो उसके लिये उनसे दूर किसी अन्य देश में रहने की मजबूरी कितनी तकलीफ़देह होगी, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है. जीवन में मानवता के लिये जिस महान कार्य का बीड़ा उन्होंने उठाया था उसे अंतिम साँस तक निभाते रहे कभी भी कहीं शिथिल नहीं पड़े, हतोत्साहित नहीं हुए.
संस्मरण : भीष्म साहनी
अंग्रेज़ी से अनुवाद : विमल शर्मा
(साभार : आजकल, फ़ैज़ जन्मशती विशेषांक)
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आज आपके लिये फ़ैज़ के मजमुए "मेरे दिल मेरे मुसाफ़िर" से जो नज़्म ले कर आयी हूँ वो फ़ैज़ की इसी वतन-बदरी की तकलीफ़ को दर्शाती है... पढ़िये और सुनिये इकबाल बानो जी की आवाज़ में...
मेरे दिल, मेरे मुसाफ़िर
हुआ फिर से हुक्म सादिर *
कि वतन-बदर * हों हम तुम
दें गली-गली सदाएँ
करें रुख नगर-नगर का
कि सुराग़ कोई पाएँ
किसी यार-ए-नामा-बार * का
हर एक अजनबी से पूछें
जो पता था अपने घर का
सर-ए-कू-ए-न-आशनायाँ *
हमें दिन से रात करना
कभी इस से बात करना
कभी उस से बात करना
तुम्हें क्या कहूँ कि क्या है
शब-ए-ग़म बुरी बला है
हमें ये भी था ग़नीमत
जो कोई शुमार होता
"हमें क्या बुरा था मरना
अगर एक बार होता"
लन्दन, १९७८
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February 8, 2011
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Tuesday, February 08, 2011
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