मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब ना माँग...  

Posted by richa in ,

न आज लुत्फ़ कर इतना के कल गुज़र न सके
वो रात जो के तेरे गेसुओं की रात नहीं
ये आरज़ू भी बड़ी चीज़ है मगर हमदम
विसाल-ए-यार फ़क़त आरज़ू की बात नहीं
-- फैज़

फैज़ की इस बज़्म-ए-सुख़न में आज उनकी जिस नज़्म को आपके रु-बा-रु ले कर आयें हैं वो "नक्श-ए-फ़रियादी" के दूसरे भाग से ली गयी है. यानी 1935 के बाद की रचना है. ये वो दौर था जब फैज़ की लेखनी रोमांसवाद की नर्मी को छोड़ कठोर भौतिकवाद की तरफ़ रुख कर चुकी थी.

वो दौर जब समूचा विश्व 1930 की विश्व मंदी से गुज़र रहा था. उस दौर के हालात, किसानों और मजदूरों के आन्दोलन और 1936 में मुंशी प्रेमचंद, सज्जाद ज़हीर और मौलवी अब्दुल हक़ के नेतृत्व में प्रगतिशील आन्दोलनों के शुभारम्भ इस नौजवान शायर के ह्रदय व मस्तिष्क को इस कदर झंझोड़कर रख देते हैं की वो ऊँचे स्वर में ये घोषणा करता है - "अब मैं दिल बेचता हूँ और जान खरीदता हूँ" *

* "दिल ब-फ़रोख्तम जाने ख़रीदम" - ' निज़ामी ' की फ़ारसी पंक्ति

और "नक्श-ए-फ़रियादी" के दूसरे भाग की शुरुआत होती है "मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब ना माँग" जैसी नज़्म के साथ, जो उस दौर के नौजवानों की आवाज़ बन गयी थी. ये एक ऐसी नज़्म है जिसे रोमान और यथार्थ का, प्यार और कटुता का सुन्दर सामंजस्य कहा जा सकता है. तो आइये पढ़ते हैं इस नज़्म को और जानते हैं कि कैसे वास्तविकता और हालात एक शायर की रोमानवी शायरी को हक़ीक़त का जामा पहना कर यथार्थवादी बना देते हैं.


मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब ना माँग
मैंने समझा था के तू है तो दरख़्शां * है हयात *
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का * झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में * बहारों को सबात *
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है


तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूँ हो जाये *
यूँ ना था, मैंने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाये
और भी दुःख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें हैं और भी हैं वस्ल की राहत * के सिवा


अनगिनत सदियों से तारीक बहीमाना तिलिस्म *
रेशम-ओ-अतलस-ओ-किमख़्वाब * में बुनवाये हुए
जा-ब-जा * बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लिथड़े हुए, ख़ून में नहलाए हुए
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों * से
पीप * बहती हुई गलते हुए नासूरों * से


लौट जाती है इधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुःख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न माँग !


फैज़ की इस नज़्म को अपनी मखमली आवाज़ दी थी मल्लिका-ए-तरन्नुम नूरजहाँ जी ने और उसे सुनने के बाद फैज़ ने कहा था "नूरजहाँ अब ये हमारी नहीं रही तुम्हारी हो गयी..." आइये हम भी सुनते हैं और जानते हैं फैज़ साहब ने ऐसा भला क्यूँ कहा...

This entry was posted on October 11, 2010 at Monday, October 11, 2010 and is filed under , . You can follow any responses to this entry through the comments feed .

6 comments

यूँ कि आनंद आ गया....तुम्हारी मेहनत रंग लाती है

October 11, 2010 at 6:34 PM

शाम बना रहा हूँ अपनी, आज तो देसी हाथ लगी है, यह भी बढ़िया है.. यहाँ कुछ आलोचना नहीं हो सकती... इसलिए सब सही है.

October 11, 2010 at 6:50 PM

बहुत खूब ...
बेहतरीन

October 11, 2010 at 7:22 PM

बहुत खूब,
आज का दिन बन गया ।

आभार,

October 12, 2010 at 12:53 AM

मैडम नूरजहां की हिट ग़जल है ये
और फ़ैज साहब ने क्या खुबसूरत लिखी है।

September 21, 2014 at 11:36 AM
Anonymous  

अद्भुत

May 8, 2015 at 12:39 AM

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