ना पूछ जब से तेरा इंतज़ार कितना है
कि जिन दिनों से मुझे तेरा इंतज़ार नहीं
तेरा ही अक्स है उन अजनबी बहारों में
जो तेरे लब, तेरे बाज़ू, तेरा कनार * नहीं
-- फ़ैज़
एक लम्बे वक्फ़े के बाद आज फिर फ़ैज़ की महफ़िल सजाई तो सोचा आज ऐसा क्या पेश करूँ आप सब के सामने जो अब तक पेश नहीं करा. फिर ख़्याल आया जैसा कि कहा जाता है हर कामयाब शख्स और उसकी बुलंद शख्सियत के पीछे एक महिला का हाथ होता है. फ़ैज़ की कामयाबी और उनके तमाम मुश्किल हालातों में जो एक अडिग स्तम्भ की तरह उनके साथ थीं वो महिला उनकी हमसफ़र उनकी पत्नी एलिस फ़ैज़ थीं. तो आइये आज आपको मिलवाते हैं एलिस फ़ैज़ से...
बीबी गुल (फ़ैज़ की बहन) बताती हैं - "फ़ैज़ के लिये बहुत से रिश्ते आये थे मगर जहाँ वालिदा (माँ) और बहनें चाहती थीं वहाँ फ़ैज़ ने शादी नहीं की और एलिस का इंतख़ाब किया. वालिदा ने मशरकी (पूर्वी) रवायत के मुताबिक़ उन्हें दुल्हन बनाया, चीनी ब्रोकेड का ग़रारा था, गोटे किनारी वाला दुपट्टा, जोड़ा सुर्ख़."
एलिस के बारे में वो आगे बताती है - "उनकी बहुत सादा तबियत है, बहुत ख़लीक़ और मोहब्बत करने वाली साबित हुईं और उन्होंने ससुराल में क़दम रखते ही सबका दिल जीत लिया और ख़ानदान में इस तरह घुल मिल गईं जैसे इसी घर की लड़की हैं, वही लिबास इख्तियार किया जो हम सब पहनते थे. हाँ सास और बहू का रिश्ता प्रेम और आदर वाला रहा, सास ने बहू को मोहब्बत दी और बहू ने सास की इज्ज़त की."
हाल ही में एक पुराना साक्षात्कार पढ़ा आजकल पत्रिका के फ़ैज़ जन्मशती विशेषांक में जिसमें "फ़ैज़" से जुड़े कुछ ख़ूबसूरत लम्हों को अमृता प्रीतम से बयां कर रही हैं एलिस फ़ैज़. आप भी पढ़िये -
अमृता : एलिस ! क्या फ़ैज़ साहब से तुम्हारी पहली मुलाक़ात तुम्हारे ही देश इंग्लिस्तान (इंग्लैंड) में हुई थी ?
एलिस : नहीं ! मेरी बहन हिन्दुस्तान ब्याही थी डॉक्टर तासीर के साथ. वे दोनों लंदन में मिले थे, 1938 में मैं अपनी बहन से मिलने हिन्दुस्तान आई थी.
तो हिन्दुस्तान को तुमने "फ़ैज़" के रूप में देखा ?
हाँ, अमृतसर में मिली थी. अमृतसर हिन्दुस्तान बन गया और हिन्दुस्तान "फ़ैज़".
तुम उर्दू ज़ुबान नहीं जानती थीं. फिर "फ़ैज़" की शायरी से इश्क़ कैसे हुआ ?
अमृता ! सच्ची बात तो यह है कि मैं आज तक "फ़ैज़" की शायरी की गहराई को नहीं जान सकी. ज़रा सी ज़बान को समझ लेना और बात है, लेकिन पूरी तहज़ीब को जानना और बात है...
तब "फ़ैज़" शायर को नहीं, "फ़ैज़" एक शख्सियत से प्यार किया था ?
हाँ, वैसे तो शायरी शख्सियत का एक हिस्सा होती है, क्यूँकि एक शायर के साथ ज़िन्दगी बसर करनी होती है, इसलिए भी उसको बहुत कुछ जानना होता है, और मैंने उसे जाना.
मिलने के कितने अरसे बाद शादी की मंज़िल आई ?
तकरीबन दो साल बाद और यह इंतज़ार इसलिए था कि फ़ैज़ के वालिदैन से मंज़ूरी चाहिये थी, क्यूँकि एक ख़ुशगवार माहौल के बग़ैर हम शादी नहीं कर सकते थे...
शादी की रस्म कहाँ अदा की गईं ?
कश्मीर में. महाराजा कश्मीर ने अपना गर्मियों का महल हमें निकाह की रस्म के लिये दिया था और शेख़ अब्दुल्लाह ने निकाह की रस्म अदा की थी.
क्या बारात लाहौर से आई थी ?
हाँ, तीन आदमियों की बारात थी. एक "फ़ैज़", दूसरे उनके बड़े भाई और तीसरे उनके दोस्त नईम... जब तीनों आ गए, तो मैंने फ़ैज़ साहब से पहली बात पूछी... "ब्याह की अंगूठी ले कर आए हो कि नहीं?" "फ़ैज़" ने कहा - "अंगूठी भी लाया हूँ, साड़ी भी."
मैं हैरान हो गई कि अंगूठी का साइज़ "फ़ैज़" ने कहाँ से लिया है. पूछने पर कहने लगे - "मैं अपने साइज़ का ले आया था."
"फ़ैज़" जान गये होंगे कि दिल मिल जाये तो उँगलियाँ भी ज़रूर मिल जाती है.
अच्छा, एलिस ! यह बताओ, निकाह के वक़्त मुशायरा भी हुआ था ?
हाँ, हुआ था. पहले शेख़ अब्दुल्लाह और उनकी बीवी के साथ खाना खाया. फिर मुशायरा हुआ. मजाज़ और जोश मलीहाबादी भी थे.
"फ़ैज़" के रिश्तेदारों से कब मुलाक़ात हुई ?
कश्मीर में तीन दिन ठहरकर हम लाहौर आ गये. वहाँ दावत-ए-वलीमा (विवाह-भोज) की गई.
सास की बुज़ुर्गाना दुआएं कैसे लीं ?
सिर झुकाकर, घूँघट निकल कर...
ईमान से ! सच ! घूँघट उठाने की रस्म भी हुई थी ?
हाँ, अमृता ! चाँदी के रुपयों की सलामी मिली थी.
सास साहिबा ने तुम्हारे नाम नहीं तब्दील किया ?
किया था और उन्होंने मेरा नाम कुलसूम रखा था, लेकिन मुझे पसंद नहीं आया.
उर्दू ज़बान कब सीखी ?
घर में "फ़ैज़" के भतीजे से. मैंने उन्हें अंग्रेज़ी सिखाई और उनसे उर्दू सीखी.
उस वक़्त तक फ़ैज़ का पहला मजमुआ (काव्य-संकलन) नक्श-ए-फ़रियादी छप चुका था ?
हाँ ! शायद एक साल पहले ही छपा था.
"फ़ैज़" ने अपने पहले इश्क़ कि दास्ताँ सुनाई थी, जिसके बारे में नक्श-ए-फ़रियादी में नज़्में लिखी थीं ?
हाँ, अमृता, वह भी और उसके बाद की दोस्तियाँ भी, लेकिन मेरी ज़िन्दगी पर कुछ भी असर-अंदाज़ नहीं होता. "फ़ैज़" एक चट्टान हैं अपने-आप में. "फ़ैज़" की वफ़ा अपने साथ है - काग़ज़ और कलम के साथ.
यह सच है. जिसकी वफ़ा अपने साथ हो, अपने किरदार के साथ हो ,अपनी तख्लीक (सृजन) के साथ हो. उस जैसा वफ़ादार कौन हो सकता है ?
तैंतीस बरस गुज़र गये हमारी शादी को.
पूरब और पश्चिम का यह मिलाप कैसा रहा ?
यह ज़रूर कह सकती हूँ कि दो मुख्तलिफ़, इलहदा-इलहदा सर-ज़मीनों के मर्द और औरत जब शादी करते हैं, तो मेरा ख़्याल है, मर्द के लिये औरत के देश में रहना आसान नहीं, लेकिन औरत अपने मर्द के देश में रह सकती है. नई धरती, नये माहौल को अपनाने की उसमें ताकत होती है. मुख्तलिफ़ तहज़ीब के लोगों की शादी आसान बात नहीं.
तुम्हारे दो बच्चे हैं ?
दो बेटियां सलीमा और मुनीज़ा. सलीमा चित्रकार हैं और मुनीज़ा टी. वी. प्रोड्यूसर ! दोनों ने दो पंजाबी भाइयों के साथ शादी की है. इसलिए इकट्ठी रहती हैं अपनी सास के साथ.
एलिस ! तुमने "फ़ैज़" की नज़्मों का अंग्रेज़ी में तर्जुमा किया होगा ?
नहीं ! और लोगों ने किये हैं. तकरीबन पाँच साल पहले यूनेस्को की तरफ़ से एक तर्जुमा छपा था.
फ़ैज़ साहब को लेनिन पुरस्कार मिला था ?
1962 में. "फ़ैज़" को हार्ट अटैक हुआ था. वह कुछ संभल चुके थे, लेकिन अभी बिस्तर पर थे, जब पाकिस्तान टाइम्स से फ़ोन आया था.
यह ख़बर सुनकर फ़ैज़ साहब के पहले अल्फ़ाज़ (शब्द) क्या थे ?
वह चुप हो गये थे. शायद दिल भर आया था.
लोगों का क्या रवैया था ?
यह कि "फ़ैज़" को यह पुरस्कार नहीं लेना चाहिये, लेकिन अयूब खां का तार आया कि वह प्राइज़ ले सकते हैं. इसी तरह के और तार भी मौसूल (प्राप्त) हुए. फिर दोस्त मुबारकबाद देने आ गये. फिर सवाल आया कि इस हालत में "फ़ैज़" मॉस्को का सफ़र कैसे कर सकते हैं ? डॉक्टर ने हवाई जहाज़ से सफ़र करना मना किया हुआ था. इसलिए बेटी को साथ लेकर "फ़ैज़" ने गाड़ी से लाहौर से कराची तक का सफ़र किया. फिर समुद्री जहाज़ से नेपेल्ज़ तक और फिर नेपेल्ज़ से गाड़ी के ज़रिये मॉस्को तक.
एलिस ! आपने कभी "फ़ैज़" की बायोग्राफी लिखने की सोची है ?
मैं तो नहीं, अलबत्ता कराची में ज़फर-उल-हसन लिख रहे हैं, लेकिन सोचती हूँ, "फ़ैज़" को ख़ुद लिखना चाहिये. एक और काम अधूरा पड़ा है. "फ़ैज़" और सूफ़ी तबस्सुम मिल कर फ़ारसी शायरी का उर्दू तर्जुमा कर रहे थे. सूफ़ी तबस्सुम का इंतक़ाल हो गया, तो "फ़ैज़" बहुत उदास हो गये... यह काम भी करने वाला है और वह काम भी. दोनों काम ज़रूरी हैं.
हाँ, एलिस, और दोनों से बड़ा ज़रूरी काम "फ़ैज़" की ज़िन्दगी को बचाने का है.
हाँ, अल्लाह उनकी हिफाज़त करे.....
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साभार : आजकल हिंदी पत्रिका - फ़ैज़ जन्मशती विशेषांक
उर्दू से अनुवाद : हरपाल कौर
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फ़ैज़ की महफ़िल बिना उनकी ग़ज़लों या नज़्मों के कहाँ पूरी हो सकती है भला, तो आज आप सब के लिये "नक्श-ए-फ़रियादी" से एक बेहद ख़ूबसूरत ग़ज़ल ले कर आये हैं, जिसे अपनी आवाज़ से सजाया है कविता कृष्णमूर्ति जी ने. आप भी सुनिये और आनंद लीजिये.
राज़-ए-उल्फ़त छुपा के देख लिया
दिल बहुत कुछ जला के देख लिया
और क्या देखने को बाक़ी है
आप से दिल लगा के देख लिया
वो मेरे हो के भी मेरे ना हुए
उनको अपना बना के देख लिया
आज उनकी नज़र में कुछ हमने
सबकी नज़रें बचा के देख लिया
आस उस दर से टूटती ही नहीं
जा के देखा, न जा के देख लिया
'फ़ैज़', तक़मील-ए-ग़म * भी हो ना सकी
इश्क़ को आज़मा के देख लिया