न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई
एक शायर है जो कलम को पन्नों पर टिकाता है तो प्रकृति के, प्रेम के, रूमानियत के नक्श उतरते चले जाते हैं। ऐसे लगता है कि ये पेड़, रात, हवाएं, मंदर और मंजर सब के सब एकसाथ बोल उठेंगे। आपके साथ चल पड़ेंगे, आप सोएंगे तो ख़्वाबों में थपकियां देंगे, आप जागेंगे तो आपको एहसास-ए-जिंदगी बक्शेंगे। मुनीज़ा की सालगिरह आपकी अपनी बेटी की सालगिरह बन जाएगी। दरख़्त मंदिरों की शक्ल ले लेंगे। आसमां की नदिया ठहर जाएगी और आपका मेहबूब आपसे पहली-सी मोहब्बत मांग बैठेगा।
एक शायर है जो कलम को पन्नों की छाती पर टिकाता है तो रौशनाई खून में तब्दील हो जाती है। अफ़्सुर्दगी और एहसास-ए-हक़ीक़त इंकलाब की लौ में आंखों की चमक बन जाती है, हंसीं खेतों का जोबन फट जाता है और उनमें क्रांति की कोपलें आसमान को चीरकर आगे निकल जाने के लिए पैदा होने लगती है। कलम जैसे-जैसे पन्नों को चीरती हुई आगे बढ़ती है, सरकारों और व्यवस्था का बुर्क़ा चिरता चला जाता है, सच्चाई का अक्स सामने आ जाता है, बगुलों और भेड़ियों की शक्लें साफ़ समझ आने लगती हैं। इनकी चालाकियां, इनकी साज़िशें और इनकी तैयारी बेपर्दा हो जाती है। हम सच भी जान लेते हैं और सच से लड़ने का हौसला भी हासिल करते हैं। रोज की दर्दनाक बेवक्त मौतों के खिलाफ रगों में पानी का रंग सुर्ख़ लाल होने लगता है और हम इंकलाब की तैयारी करने लगते हैं।
इन दोनों ही शायरों का एक नाम है - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़।
20वीं सदी का वो महान उर्दू शायर जिसने सरकारी तमगों और पुरस्कारों के लिए नहीं, जिसने शराब की चाशनी में डूबती-नाचती महबूबाओं के लिए नहीं, जिसने मज़ारों और बेवफ़ाईयों के लिए नहीं बल्कि अपने इंसान होने के एहसास, समाज और देश के लिए, एक सही और बराबरी की व्यवस्था वाले लोकतंत्र के लिए इंकलाब को अपने कलम की स्याही बनाया और ज़ुल्म-ओ-सितम में जी रहे लोगों को वो दिया जो बंदूकों और तोपखानों से बढ़कर था। फ़ैज़ की कविताओं में जितना जिंदा वो सच है जिसमें हम जी रहे हैं, उतना ही जिंदा वो हौसला है जिसकी बदौलत आदम-ओ-हव्वा की औलादें अपने वर्तमान को बदल सकती हैं। वो कहते हैं-
बोल ज़बां अब तक तेरी है
तेरा सुतवां जिस्म है तेरा
बोल के जां अब तक तेरी है
या फिर-
हम परवरिश-ए-लौह-ओ-कलम करते रहेंगे
जो दिल पे गुज़रती है, रक़म करते रहेंगे
इस तैयारी के लिए लोगों का आह्वान करते हुए फ़ैज़ केवल हाथों में मशालें नहीं पकड़ाते बल्कि साथ ही यह विश्वास भी दिलाते हैं कि जीत आखिर सच की और सच के लिए लड़ने वालों की ही होगी। वो कहते हैं-
न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई
यूँ ही हमेशा खिलाए हैं हमने आग में फूल
न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई।
शोषण, दमन और बंदरबांट को जिस खूबसूरती से फ़ैज़ नंगा करके लोगों के सामने लाते हैं, वो बेमिसाल है। पर जब फ़ैज़ इश्क़ भी करते हैं तो लगता है कि न जाने कोई हाड़-मांस की महबूबा है या इंकलाब का परचम थामे हुए क्रांति खड़ी है जिसके लिए वो दीवाने हुए जाते हैं। और इसीलिए जब रूमानियत की या इंकलाब की कविताओं की बात अलग-अलग उठती है तो फ़ैज़ तराजू के दोनों ओर बराबर वज़नदार मालूम देते हैं। कोई भी इंकलाबी कवि या शायर रूमानी भी हो सकता है या होता है, ऐसे जुमलों का सबसे सटीक और मज़बूत उदाहरण फ़ैज़ हैं। फ़ैज़ की शताब्दी में यह खासियत उनसे पहले मजाज़ लखनवी में ही दिखती है, बाकी इस स्तर की किसी और उर्दू शायर में नहीं और इसीलिए 20वीं सदी में फ़ैज़ सबसे सशक्त उर्दू शायर के तौर पर उभरकर सामने आते हैं।
फ़ैज़ केवल पाकिस्तान के नहीं थे। जब वो पैदा हुए तो भारत और पाकिस्तान एक ही थे। कम लोगों को मालूम है कि लाहौर में सांडर्स की हत्या के लिए भगत सिंह और साथियों की पिस्तौल से चली गोली की आवाज सुनने वालों और फिर भागते क्रांतिकारियों को देखने वालों में से एक फ़ैज़ भी थे, अपने हॉस्टल की छत पर टहलते हुए अचानक ही इस ऐतिहासिक पल के वे साक्षी बने थे। पाकिस्तान बना पर भगत सिंह फ़ैज़ के दिल में कायम रहे. बिना किसी परवाह के फ़ैज़ के लिए धरती पर सबसे ज्यादा पसंदीदा और प्रभावित करनेवाला नाम भगत सिंह बने रहे। और फिर दक्षिण एशिया क्या, दुनिया के तमाम कोनों में फ़ैज़ कभी मर्ज़ी से, कभी मजबूरी में पहुंचे। अपने संघर्ष के तरानों को दूसरों के लिए लिखते हुए उन्होंने दुनियाभर में शोषण और अत्याचार के खिलाफ़ अपनी कविताओं को बुलंद किया।
भविष्य का सपना दिखाती सत्ता और लोगों की साज़िशों ने भूमंडलीकरण और खुली अर्थव्यवस्थाओं की पोटली पर विकास की पर्ची चस्पा कर दी है ताकि आंखमिचौली के खेल में हमारे लुट जाने का हमें एहसास तक न होने पाए और जो हो तो तबतक सबकुछ मुट्ठी की रेत की तरह हाथ से निकल चुका हो। इसे फ़ैज़ बखूबी पहचानते थे और इसीलिए आज जब हम देखते हैं कि सरकारों में किस कदर सेंध लगाकर शोषक पैठ बना चुका है, जब हम लोकतंत्र के नाम पर दुनियाभर के तमाम देशों में एक खोखली और शोषणकारी व्यवस्था देखते हैं, जब हम अमरीका और यूरोप की करतूतों और उन पर लिपटे सभ्य होने के सफेद लिहाफों को देखते हैं, जब हम उन झूठे सपनों की ओर देखते हैं जिसमें विकास की चमकती दमकती, गगनचुंबी तिलिस्मी तस्वीर पूरी दुनिया को अपने मकड़जाल में कसती जा रही है और इन सबके खिलाफ जब हम जल, जंगल, जमीन, मानवाधिकारों और बराबरी पर आधारित व्यवस्था की लड़ाइयों के मोर्चे दुनियाभर में देखते हैं, फ़ैज़ और अधिक प्रासंगिक हो जाते हैं।
फ़ैज़ तब तक साहित्य की क्यारियों में महकते रहेंगे, उनकी कविताओं की किताबें, डायरी के पन्ने और कतरने तब तक ज़िन्दा और प्रासंगिक बने रहेंगे जब तक कि पूरी दुनिया में किसी एक भी इंसान के साथ अन्याय और शोषण होता रहेगा। वजह यह है कि फ़ैज़ भी कबीर की तरह दूर तक देख रहे हैं, उस हकीकत को जो हम सब के इंसान होने की सच्चाई पर हमें फिर से सोचने को मजबूर करती है। यही वजह है कि आज जब दुनिया में अलग-अलग देशों में एक जैसी तकलीफों के लिए इंकलाब करते, विद्रोह करते लोग नजर आते हैं, फ़ैज़ साथ खड़े मिलते हैं। चौराहों पर, तख्तियों पर, पोस्टरों और कमीजों पर, हर जगह एक साहस देते और रास्ता दिखाते साथी की तरह।
-- पाणिनि आनंद
साभार : राष्ट्रीय सहारा, रविवारीय परिशिष्ट, २७ मार्च २०११
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फ़ैज़ के बारे में इतना अच्छा लेख पढ़ने के बाद आइये उनकी एक ख़ूबसूरत सी नज़्म भी पढ़ते हैं, "शाम" जो उनके संग्रह "दस्त-ए-तह-ए-संग" से ली गई है.
इस तरह है कि हर एक पेड़ कोई मंदिर है
कोई उजड़ा हुआ, बे-नूर पुराना मंदिर
ढूंढ़ता है जो ख़राबी के बहाने कब से
चाक हर बाम, हर एक दर का दम-ए-आख़िर है
आस्मां कोई पुरोहित है जो हर बाम तले
जिस्म पर राख मले, माथे पे सिंदूर मले
सर-निगूं बैठा है चुपचाप न जाने कब से
इस तरह है कि पस-ए-पर्दा कोई साहिर है
जिसने आफ़ाक़ पे फैलाया है यूँ सहर का दाम
दामन-ए-वक़्त से पैवस्त है यूँ दामन-ए-शाम
अब कभी शाम बुझेगी न अँधेरा होगा
अब कभी रात ढलेगी न सवेरा होगा
आस्मां आस लिए है कि ये जादू टूटे
चुप की ज़ंजीर कटे, वक़्त का दामन छूटे
दे कोई शंख दुहाई, कोई पायल बोले
कोई बुत जागे, कोई साँवली घूँघट खोले