तेरा जमाल निगाहों में ले के उठा हूँ
निखर गई है फ़ज़ा तेरे पैरहन* की सी
नसीम तेरे शबिस्ताँ* से होके आई है
मेरी सहर में महक है तेरे बदन की सी
-- फ़ैज़
निखर गई है फ़ज़ा तेरे पैरहन* की सी
नसीम तेरे शबिस्ताँ* से होके आई है
मेरी सहर में महक है तेरे बदन की सी
-- फ़ैज़
कभी
कभी होता है ना कि कुछ कहने का दिल नहीं करता... आज ऐसा ही कुछ है हमारे
साथ... वैसे भी फ़ैज़ के बारे में क्या और कितना कहा जाये... आइये आज की बज़्म में सिर्फ़ उनके लिखे को महसूस करते हैं और सुनते हैं "शाम-ए-शहर-ए-याराँ" से
एक ख़ूबसूरत सी ग़ज़ल आबिदा परवीन जी कि आवाज़ में...
हमने सब शेर में
सँवारे थे
हमसे जितने सुख़न* तुम्हारे थे
रंग-ओ-ख़ुश्बू के,
हुस्न-ओ-ख़ूबी के
तुमसे थे जितने इस्तिआरे* थे
तेरे क़ौल-ओ-क़रार
से पहले
अपने कुछ और भी सहारे थे
जब वो लाल-ओ-गुहर* हिसाब किये
जो
तेरे ग़म पे दिल ने वारे थे
मेरे दामन में आ गिरे सारे
जितने
तश्त-ए-फ़लक* में तारे थे
उम्र-ए-जावेद की* दुआ करते
"फ़ैज़"
इतने वो कब हमारे थे
१९७२