इन दिनों रस्म-ओ-रह-ए-शहर-ए-निगाराँ* क्या है
क़ासिदा*, क़ीमत-ए-गुलगश्त-ए-बहाराँ* क्या है
कू-ए-जानाँ* है, कि मक़तल* है, कि मयखाना है
आजकल सूरत-ए-बर्बादी-ए-याराँ क्या है
-- फ़ैज़
एक अरसा हो गया फ़ैज़ की बज़्म-ए-शेर-ओ-सुख़न चरागाँ किये हुए... आज एक लम्बे वक्फ़े के बाद इधर का रुख करा तो सोचा ज़रा साफ़ सफ़ाई कर के चंद कंदील टाँग दूँ... खिड़की दरवाज़े ज़रा खोल दूँ कि ताज़ी हवा आये... कुछ फूल सजा दूँ... कुछ शमाएँ रौशन कर दूँ... कुल मिला कर बज़्म एक बार फिर सजाऊं और फ़ैज़ के दीवानों को एक बार फिर आवाज़ लगाऊँ कि आ जाओ... फ़ैज़ कि महफ़िल को एक बार फिर अपनी दाद और वाह-वाह से गुलज़ार कर दो...!
आज अकेली आ रही थी बिना किसी क़िस्से कहानी के, वो भी इतने लम्बे अरसे बाद तो टीना सानी जी का हाथ पकड़ कर उन्हें भी यहाँ ले आयी... एक ही बार देखा है उन्हें, फ़ैज़ कि जन्मशती के अवसर पर आयोजित एक कंसर्ट में... यकीन मानिये उनसे ज़्यादा नम्र इन्सान हमने आजतक नहीं देखा... आइये साथ मिलकर सुनते हैं उनकी आवाज़ में फ़ैज़ की एक दकनी ग़ज़ल उनके मजमुए शाम-ए-शहर-ए-याराँ से.
कुछ पहले इन आँखों आगे क्या-क्या न नज़ारा गुज़रे था
क्या रौशन हो जाती थी गली जब यार हमारा गुज़रे था
थे कितने अच्छे लोग कि जिनको अपने ग़म से फ़ुर्सत थी
सब पूछते थे अहवाल* जो कोई दर्द का मारा गुज़रे था
अब के तो ख़िज़ाँ* ऐसी ठहरी वो सारे ज़माने भूल गये
जब मौसम-ए-गुल* हर फेरे में आ-आ के दुबारा गुज़रे था
थी यारों की बहुतात तो हम अग़यार* से भी बेज़ार न थे
जब मिल बैठे तो दुश्मन का भी साथ गवारा गुज़रे था
अब तो हाथ सुझाई न देवे लेकिन अब से पहले तो
आँख उठते ही एक नज़र में आलम सारा गुज़रे था
मॉस्को, अक्टूबर, 1978