हमारे दम से है कू-ए-जुनूँ * में अब भी ख़जल *
अबा-ए-शेख़-ओ-क़बा-ए-अमीर-ओ-ताज-ए-शही *
हमीं से सुन्नत-ए-मंसूर-ओ-क़ैस * ज़िन्दा हैं
हमीं से बाक़ी है गुलदामनी-ओ-कजकुलही *
-- फैज़
आज आप सब के लिये फैज़ की एकदम अलग तरह की नज़्म से ले कर आये हैं. रोमांसवाद से पूर्णतयः मुक्त जिसे पढ़ कर आप शायद समझ सकें की फैज़ के कलम की ताकत से पाकिस्तान की सरकार किस कदर खौफ़ खाती थी. फैज़ की शायरी में जो पूरी अवाम के जज़्बातों को एक साथ झंकझोर देने की कला थी उसी के चलते उन्हें अपने जीवनकाल में तमाम बार जेल हुई और देश निकाला मिला... क्यूँकि सरकार को डर था की गर फैज़ यूँ ही लिखते रहे तो अवाम बाग़ी हो जायेगी.
उर्दू क्लासिकल शायरी के मुहावरों और हुस्न के रसाव से विपरीत एकदम अलग तरह की उपमाओं और प्रतीकों से सजी आज की नज़्म "कुत्ते" उनके पहले कविता संग्रह "नक्श-ए-फ़रियादी" से ली है. यहाँ कुत्ते उन बेघर लोगों के प्रतीक हैं, जो अपनी रातें फुटपाथ पर बिताते हैं, आवारा घूमते हैं, ज्यों-त्यों पेट भरते हैं और सबकी फटकार सहते हैं. इनमें ज़िन्दगी का यथार्थ भी है और ज़िन्दगी को बदलने की प्रबल इच्छा भी है. यह शायरी जहाँ मध्य वर्ग के असंतुष्ट युवकों को पसंद आती है, वहाँ उच्च वर्ग को भी अखरती नहीं क्यूँकि ये आवारा कुत्ते कभी बगावत नहीं करते, दुम हिलाओ तो ज़्यादा-से-ज़्यादा भौंकते हैं और फिर चुप हो जाते हैं.
उर्दू क्लासिकल शायरी के मुहावरों और हुस्न के रसाव से विपरीत एकदम अलग तरह की उपमाओं और प्रतीकों से सजी आज की नज़्म "कुत्ते" उनके पहले कविता संग्रह "नक्श-ए-फ़रियादी" से ली है. यहाँ कुत्ते उन बेघर लोगों के प्रतीक हैं, जो अपनी रातें फुटपाथ पर बिताते हैं, आवारा घूमते हैं, ज्यों-त्यों पेट भरते हैं और सबकी फटकार सहते हैं. इनमें ज़िन्दगी का यथार्थ भी है और ज़िन्दगी को बदलने की प्रबल इच्छा भी है. यह शायरी जहाँ मध्य वर्ग के असंतुष्ट युवकों को पसंद आती है, वहाँ उच्च वर्ग को भी अखरती नहीं क्यूँकि ये आवारा कुत्ते कभी बगावत नहीं करते, दुम हिलाओ तो ज़्यादा-से-ज़्यादा भौंकते हैं और फिर चुप हो जाते हैं.
ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते
के बख्शा गया जिनको ज़ौक-ए-गदाई *
ज़माने की फटकार सरमाया * इन का
जहाँ भर की दुत्कार इनकी कमाई
न आराम शब की न राहत सवेरे
गिलाज़त * में घर, नालियों में बसेरे
जो बिगड़ें तो इक दूसरे से लड़ा दो
ज़रा एक रोटी का टुकड़ा दिखा दो
ये हर एक की ठोकरें खाने वाले
ये फ़ाकों * से उकता के मर जाने वाले
ये मज़लूम मखलूक * गर सर उठाये
तो इन्सान सब सरकशी * भूल जाये
ये चाहें तो दुनिया को अपना बना लें
ये आक़ाओं * की हड्डियाँ तक चबा लें
कोई इनको एहसास-ए-ज़िल्लत * दिला दे
कोई इनकी सोयी हुई दुम हिला दे
के बख्शा गया जिनको ज़ौक-ए-गदाई *
ज़माने की फटकार सरमाया * इन का
जहाँ भर की दुत्कार इनकी कमाई
न आराम शब की न राहत सवेरे
गिलाज़त * में घर, नालियों में बसेरे
जो बिगड़ें तो इक दूसरे से लड़ा दो
ज़रा एक रोटी का टुकड़ा दिखा दो
ये हर एक की ठोकरें खाने वाले
ये फ़ाकों * से उकता के मर जाने वाले
ये मज़लूम मखलूक * गर सर उठाये
तो इन्सान सब सरकशी * भूल जाये
ये चाहें तो दुनिया को अपना बना लें
ये आक़ाओं * की हड्डियाँ तक चबा लें
कोई इनको एहसास-ए-ज़िल्लत * दिला दे
कोई इनकी सोयी हुई दुम हिला दे
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November 18, 2010
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Thursday, November 18, 2010
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