इक तमन्ना सताती रही रात भर...  

Posted by richa in ,

तमाम शब दिल-ए-वहशी तलाश करता है
हर इक सदा में तेरे हर्फ़-ए-लुत्फ़ का आहंग
हर एक सुबह मिलाती है बार-बार नज़र
तेरे दहन से हर इक लाला-ओ-गुलाब का रंग
-- फ़ैज़

ख़ुशामदीद ! फ़ैज़ की महफ़िल-ए-शेर-ओ-सुख़न में एक बार फिर आप सब का स्वागत है. आज आप सब के लिये फ़ैज़ के मजमुए "शाम-ए-शहर-ए-याराँ" से एक बेहद ख़ूबसूरत ग़ज़ल चुन के लाये हैं. ये ग़ज़ल फ़ैज़ ने अपने दोस्त और उर्दू के मशहूर शायर मख़दूम मोहिउद्दीन की याद में उनकी ही ग़ज़ल से प्रेरित होकर लिखी थी.

मख़दूम भी फ़ैज़ के साथ प्रोग्रेस्सिव राइटर असोसिएशन (पी.डब्लू.ए) के प्रमुख सदस्यों में से एक थे और मार्क्सवादी विचारधारा को मानने वाले एक तरक्की-पसंद शायर थे. मख़दूम ने १९४६ - ५१ तक चले "तेलंगाना आन्दोलन" में बढ़ चढ़ के हिस्सा भी लिया था.

आइये पहले पढ़ते हैं मख़दूम जी की लिखी हुई ग़ज़ल और उसे सुनते हैं छाया गांगुली जी की आवाज़ में, इस ग़ज़ल को मुज़फ्फ़र अली द्वारा निर्देशित और फ़ारुख शेख़ एवं स्मिता पाटिल अभिनीत फिल्म "गमन" में इस्तेमाल किया गया था.

आप की याद आती रही रात भर
चश्म-ए-नम मुस्कुराती रही रात भर

रात भर दर्द की शमा जलती रही
गम की लौ थरथराती रही रात भर

बाँसुरी की सुरीली सुहानी सदा
याद बन बन के आती रही रात भर

याद के चाँद दिल में उतरते रहे
चाँदनी डगमगाती रही रात भर

कोई दीवाना गलियों में फिरता रहा
कोई आवाज़ आती रही रात भर

-- मख़दूम मोहिउद्दीन


और अब पढ़ते हैं फ़ैज़ साब की इस ग़ज़ल को जो उन्होंने मख़दूम की ग़ज़ल से प्रेरित हो कर लिखी. इस ग़ज़ल को हम सुनेंगे "पी.टी.वी." पर आयोजित एक संगीत-गोष्ठी से पाकिस्तान की मशहूर ग़ज़ल गायिका टीना सानी जी की आवाज़ में.

उम्मीद है आपको भी आज की ग़ज़लें उतनी ही पसंद आयेंगी जितनी की हमें पसंद हैं. कैसी लगीं बताइयेगा ज़रूर...

"आपकी याद आती रही रात भर"
चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर

गाह जलती हुई, गाह बुझती हुई
शम-ए-ग़म झिलमिलाती रही रात भर

कोई ख़ुशबू बदलती रही पैरहन *
कोई तस्वीर गाती रही रात भर

फिर सबा * साया-ए-शाख़े-गुल * के तले
कोई किस्सा सुनाती रही रात भर

जो ना आया उसे कोई ज़ंजीर-ए-दर *
हर सदा पर बुलाती रही रात भर

एक उम्मीद से दिल बहलता रहा
इक तमन्ना सताती रही रात भर

मॉस्को, सितम्बर १९७८

This entry was posted on February 1, 2011 at Tuesday, February 01, 2011 and is filed under , . You can follow any responses to this entry through the comments feed .

7 comments

उम्मीद है आपको भी आज की ग़ज़लें उतनी ही पसंद आयेंगी जितनी की हमें पसंद हैं. कैसी लगीं बताइयेगा ज़रूर...

एक रेडियो प्रेजेंटर की तरह जब आप ऐसा कुछ पेश करती हैं तो कैसा लग सकता है. कुछ लोग अलफ़ाज़ के मजबूत घोड़े होते हैं. फैज़ भी उन्ही में से एक थे. फार्म शायरी जरूर था लेकिन कई अन्य चीजों पर उनके लेख से भी बहुत मुत्तासिर हुआ हूँ, मसलन अभी हाल ही पढ़ा एक लेख "मशरिक मशरिक है और मगरिब मगरिब में जब उन्होंने एक विदेशी लेखन को उसका और हमें अपना आइना दिखाया तो उनका सरहद समझा जा सकता है जोकि बेसरहद था.

उसी सम्बन्ध में ये पता चला जब उन्होंने यहाँ दिल्ली में यह कहा था "अमूमन शायरों को उनके जीते जी इज्ज़त नहीं मिलती लेकिन मैं इस मामले में अपवाद हूँ कि खामखा इतनी इज्ज़त दी जा रही है और इस मुकाबले मैं दुनिया को क्या लौटा रहा हूँ. वे एक फौजी थे लेकिन ऐसी विनम्रता मुश्किल से आती है. कई बने हुए शायर आज भी हैं जो विनम्रता कि खाल ओढ़े चलते हैं और जरुरत मुताबिक इस्तेमाल करते हैं. ऐसे में मंटो भला था जहाँ "शायद" की गुंजाईश नहीं थी.

February 1, 2011 at 4:24 PM

हाँ ऑडियो फाइल भेज दें तो शुक्रगुजार रहूँगा...
आपकी मेहनत की तारीफ पहले भी कर चूका हूँ... बहुत बहुत शुक्रिया...

February 1, 2011 at 4:25 PM

शुक्रिया साग़र... सही कहा आपने "कुछ लोग अलफ़ाज़ के मजबूत घोड़े होते हैं."... फ़ैज़ अल्फाजों के जिनते मज़बूत थे दिल से उतने ही विनम्र और शालीन थे... बहुत कम लोगों में ऐसी शालीनता देखने को मिलती है वो भी तब जब वो अपने जीते जी इतनी क़ामयाबी हासिल कर लें... हाल ही में फ़ैज़ पर काफ़ी कुछ पढ़ा और सुना जो आने वाले कुछ दिनों में इस ब्लॉग पर भी शेयर करुँगी आप सबके साथ... फ़ैज़ की विनम्रता की एक झलक इस विडियो में देखी जा सकती है - http://www.youtube.com/watch?v=byeR0bGG-vw

February 1, 2011 at 5:09 PM

आपकी मेहनत और बात कहने का सलीका वाकई लाजवाब है,ॠचा जी। इतने उम्दा पोस्ट्स के लिये दुआएँ आपको। फ़ैज़ साहब अपने व्यवहार में बहुत ही शालीन थे पर साथ ही बहुत दृढ विचारों के शख्स थे। आगामी 13 फ़रवरी को फ़ैज़ साहब कि जन्मशती है। आपको और फ़ैज़ साहब के सारे मुरीदों को उनकी सौवीं वर्षगाँठ बहुत बहुत मुबारक हो।

February 1, 2011 at 8:35 PM

दो बड़े शायरों की खूबसूरत ग़ज़लों से मिलवाने का शुक्रिया...........आनंद आ गया !

February 1, 2011 at 11:14 PM

आपका प्रस्तुतीकरण और आपका अंदाज मन को भाता है ......यहाँ आकर चैन और सकूँ मिलना अवश्यम्भावी है ....आपका आभार ऋचा जी ..इस सार्थक प्रयत्न के लिए ..आशा है आप आगे भी हमें अनुग्रहित करती रहेंगी ....शुक्रिया

February 3, 2011 at 3:58 PM

इस हौसला अफज़ाई के लिये आप सभी का बहुत आभार...
रवि जी फ़ैज़ की सौवीं वर्षगाँठ हो और हम सब मिल के उसे ना मनाएँ ऐसा कैसे हो सकता है...
आप सभी से ये गुज़ारिश है की फ़ैज़ के बारे में जानकारी सांझा करते रहिये इस ब्लॉग के माध्यम से और अपनी तरफ़ से हम भी कोशिश करेंगे की अब से ले कर १३ फरवरी यानी फ़ैज़ के जन्मदिन तक कम से कम हर दूसरे दिन कोई पोस्ट डालें...
तो आप सब यूँ ही आते रहिये फ़ैज़ की इस महफ़िल को आबाद करने और हम सब मुरीद मिल के मनायेंगे फ़ैज़ की जन्मशती :)

February 4, 2011 at 3:25 PM

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